सुबोधनी
खण्डितरागादिभिः का शोभा को वेष इति प्रतिवचनमाशंक्य तच्चणमेवात्र प्रमाणमिति पुनस्तथैवाह- हे देव वदनेन्दु- विनिर्जितः शशी दशखण्डमात्मानं कृत्वा ते पदं प्रपद्याधिकां शोभामतिशयेनाप्नोति। अतस्त्वयी – दृशावेव शोभावेषाविति भावः। ममैतद्दर्शनं तव कृपयैवेति प्रागुक्तं द्रढयति- तव कारुण्यस्य विलसितं कियत् प्रमाणमिति च न जानामीत्यर्थः।।96।।
सारंगरंगदा
अथ तस्य स्वकर्णामृतरूप- स्वादर्शनदुःखजस्वदर्शनान्द- जोन्मादप्रलाप- श्रवणानन्दिना तद्वर्णनाशक्त्या नमस्कृत्य मौनमास्थितं तं दृष्ट्वा पुनस्तुदुक्तिशुश्रूषुणा स्वमुखादि वर्णनेश्वरान्तर- भजनवर- प्रार्थनाद्याज्ञया तत्तत्- स्थापनाय च प्रेमनिष्ठादिक – मुद्घाटयितुं विवदमानेन श्रीकृष्णेन सह विवदमानः सप्त- दशश्लोकीमाह। तत्र प्रथमम्- अयि लीलाशुक, चंद्रपद्माद्युपमेयतया किमति मन्मुखाद्यंग न वर्णयसीति तद्वाक्यात् क्षणं विमृश्य ‘लीलास्वयम्वररसं लभते जयश्रीः’[1]इतिवत्तानयोग्यान्मत्वा श्रीचरणारविन्दे दृष्टिं क्षिपन्कैमुत्येन भंगीपूर्वकमाह- हे देव, अयं शश्यखण्डनिर्मलोज्ज्वल- त्वद्वदनेन्दोरुदयेनैव स्वपराजयं मत्वा श्रीनखस्वरूपेण दशधात्मानं कृत्वा ते पदं प्रपद्यतेऽयद्यापि सेवते। देवस्य तव पदम्वा। ननु भद्रम्, नखानेव तथा वर्णय, इत्यत्र न हि न हीत्याह, अधीति। अत्र त्वत्कारुण्ये- नाधिकां श्रियं तत्तद्वुणसम्पत्ति– मश्नुतेतराम। मुहुः प्राप्नोतीत्यर्थः। नखेन्दुचंद्रयोर्निर्दोषसदोषत्वेन महद्वैषम्यात्। नन्वेत्तप्राप्तिरेव मे करुणेति सशंकमाह- इदं तव कारुण्यसिन्धूनां विजृम्भितं कियदल्पम्। तत्कणिकैवेत्यर्थः। अतो योऽयं खस्थः शशी स ते नखासाम्येऽप्योग्य इति भावः।।96।।
“आस्वादबिन्दु” टीका
श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीकृष्ण के अदर्शन से श्रीलीलाशुक को दुःख होता है और उनके दर्शन से आनन्द होता है; ऐसी स्थिति में श्रीलीलाशुक के मुख से उन्माद प्रलापमय जो वाक्य निकलते हैं, वे श्रीकृष्ण के कानों के अमृत लगते हैं। उन्हीं वाक्यों को सुनने की श्रीकृष्ण की विशेष इच्छा है, किन्तु श्रीलीलाशुक वर्णन करने में असमर्थ होकर केवल नमस्कार कर नीरव हो गये। यह देखकर श्रीकृष्ण पुनः उनसे अपने मुख आदि का वर्णन सुनने की इच्छुक होकर बोले- ‘हे लीलाशुक ! तुम मेरे मुखादि का वर्णन करो, या फिर ईश्वरान्तर’ (अन्य ईश्वर) का भजन करो, या कोई वर माँगो। यह आज्ञा देकर उक्त विषयों की स्थापना का लिये बहुत- सी युक्तियाँ प्रस्तुति कीं। उद्देश्य था श्रीलीलाशुक की परीक्षा और प्रेमनिष्ठा आदि का उद्घाटन।
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