श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
और कैसे ?’ “खण्डांगरागलवरञ्जितमञ्जुलश्रीः” रतिकलह से जो अंगरंग खण्डित हो गया है, उसके लव या बिन्दुमात्र से रञ्जित जिनकी सुन्दर शोभा है। और कैसे हैं? गण्डस्थली मुकुरमण्डलखेलमानधर्मांकुरः जिनके गण्डस्थल मुकुर (दर्पण) की तरह हैं; जिन पर धर्म-अंकुर (स्वेदकण) शोभा पा रह हैं। श्रीराधा के केश प्रसाधन के समय किसी सुखविशेष के उदय के कारण रतिकलह में हार टूट गया है, अपने परिश्रम के कारण स्वेद या कण झलक उठे हैं और अंगराग खण्डित हो गया हैं, ततपश्चात् श्रीराधा का हार गूँथ दिया है- यही समुदय अर्थ है। श्रील चैतन्यदास गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक इस श्लोक में पुनः श्रीकृष्ण का अद्भुत भूषण व्यञ्जित कर रहे हैं। श्रीकृष्णदेव किस कान्तिवेश की माला गूँथ रहे हैं, यह वर्णन नहीं किया जा सकता। कान्ता श्रीराधा के कुचग्रहण के समय जो प्रणयकलह या हस्ताहस्ति हुई थी, उसमें उनके केशबन्धन के खुल जाने से और उससे युक्त अंगराग के खण्डित हो जाने से उसके कुछ अंश से रञ्जित हो जाने से जिनकी सुन्दर शोभा हो गई थीं। और गण्डस्थलों की स्वच्छता के कारण मानो मुकुर के ऊपर घर्मांकुर शोभा पा रहे थे।।91।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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