श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
यह अति विचित्र, अति अद्भुततम है। इस प्रकार श्रीलीलाशुक श्रीकृष्ण के अंग-प्रत्यंग के साक्षात् दर्शन कर उस-उस अंग को अति विचित्र, अति अद्भुत, अति विचित्रतम् अनुभव कर रहे हैं। किसी किसी ग्रंथ में ‘वपुरस्य’ के स्थान पर ‘वपुरम्ब’ मिलता है। वहाँ अम्ब’ शब्द का अर्थ होगा- ‘ओमा !’ यह ‘आकाशे’ विस्मयपूर्वक संबोधन है। श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक इस श्लोक में अपने जीवित (जीवन) श्रीकृष्ण का आश्चर्यजनक रूप में वर्णन कर रहे हैं। श्रीकृष्ण के श्रीचरणारविन्द ध्वज, वज्र, यव, अंकुश आदि रेखाओं से युक्त, अति आश्चर्यजनक और परम मनोहर हैं। श्रीकृष्णचरण अति दुर्लभ हैं, महामुनियों के भी ध्यानयोग में चिन्तनीय हैं, किन्तु दृश्य नहीं है। वे जिस पर अनुग्रह करते हैं, उन्हीं को ये चरण सुलभ होते हैं। उनका विशेष अनुग्रह प्राप्त होता है व्रजप्रेम से, इसलिए श्रीकृष्ण व्रजवासियों को ही सभी प्रकार से सुलभ हैं। श्रील विल्वमंगल ठाकुर ने ही कहा है-
‘हे कृष्ण ! तुम व्रज में गोपालों के प्रांगण में कीचड़ में स्वच्छन्द विहार करते हो, ब्राह्मणों के यज्ञस्थान पर आने में क्या तुम्हें लाज आती है? व्रज में गाय-बैलों के हुंकार का तुम उत्तर देते हो, पर महामहत्गण के शत-शत स्तुतिवचनों पर भी नीरव रहते हो। गोकुल-रमणियों की दासता करने की भी कितनी साध रखते हो, उधर शान्त दान्त (आत्मसंयमी) मुनियों के स्वामी होने की भी इच्छा नहीं करते। अतएव समझ गया, तुम्हारे ये दुर्लभ श्रीचरण एकमात्र प्रेम से ही लभ्य हैं।’ यही बात अन्यान्य अंगों के विषय में भी समझनी होगी। नयनारविन्द आश्चर्यजनक हैं, कारण- वे विविद हाव-भाव आदि और दृष्टिभंगिमा से युक्त हैं। इसी प्रकार उनका वदनारविन्द भी महा आश्चर्यजनक सौन्दर्य माधुर्य लावण्य आदि से युक्त है। आश्चर्य से ‘अम्ब’ संबंधन किया हैं। (इन्होंने ‘वपुरम्ब’ पाठ ही ग्रहण किया है) इनका वपु (श्री अंग) आश्चर्यजनक माधुर्य से युक्त है। अति स्निग्ध मेघ, नीलकमल, मरकतमणि की छटा को भी पराभूत करता है। व्रजबालाओं के प्रेम में यह रूपमाधुरी अत्यंत चित्ताकर्षक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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