श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीलीलाशुक ने ऐसी स्वरविकृति के साथ यह बात कही कि लगा, उन्होंने अत्यंत आश्चर्य के साथ ही यह बात कही है। “अमी वयं”- ‘अमी’ इस अदस् शब्द को प्रयोग करने का कारण यही है कि लीलाशुक अपनी बहिर्मुख पूर्वदशा का स्मरण कर रहे हैं- ‘हम जैसे मोहमुग्ध मानव भी उस विधिशुकादि की आराध्य वस्तु की आराधना करते हैं, यह क्या अति आश्चर्य की बात नहीं है?’ “वयम्” इस बहुवचन का उद्देश्य यह हैं कि वे अपने साथियों को शामिल करके ही यह बात कह रहे हैं। लीलाशुक कहते हैं- ‘श्रीवृन्दावन के उन श्यामसुन्दर नवकिशोरदेव की तरह वस्तु, जिसका आश्रय लिया जा सके, विश्व में और क्या है? साथियों, उस वस्तु की विशिष्टता बताता हूँ, सुनो! वे कालिन्दीपुलिन – प्रांगण-प्रणयी हैं। उनकी यह परम प्रिय विहारस्थली कितनी सुन्दर, कितनी मनोरम है। अमृतजला यमुना के गहरे नीले जल की मृदुल तरंगों की बात सोचकर मन कैसा हो जाता है। नवतृणदलराजि (नयी-नयी हरी घास) से मंडित नयनरञ्जन श्यामल यमुनापुलिन, कालिन्दीतटवर्ती सुस्निग्ध कदम्बकानन एक अपूर्व सुमधुर काव्य का राज्य है, तभी तो श्यामसुन्दर की प्रियतम विलासस्थली है। बन्धुगण। ऐसे स्थान पर जाने का लोभ किसके मन में नहीं होता, बताओ?’ फिर वे स्वयं मधुरिमा के साम्राज्य हैं। उनका वदन मधुर, नयन मधुर, वचन मधुर, चलन मधुर- केवल मधुर क्यों कहूँ, मधुरर से भी सुमधुर, उससे भी अधिक अति सुमधुर। मधुवर्षण करने वाली उनकी वंशी के माधुर्य की बात कौन कह सकता है? उसके स्वर से सभी मधुमय हो जाता है। अचल सचल हो जाता है; सचल अचल हो जाता है- “अस्पादनं गतिमतां पुलकस्तरूणाम्” (भा.) जिस बाँसुरी के मधुर स्वर के कारण गोपियाँ अपना कुल खोकर अकूल (प्रेमसागर) में तैर गईं, उस बाँसुरी की मधुरता और क्या बताऊँ? वे विदग्धों के भी शिरोमणि हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै.च.
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