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‘आस्वादबिन्दु’ टीका श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक एक बार पुनः बाह्यदशा और अन्तर्दशा से युक्त होकर स्मरलालसा के उत्पादक श्रीकृष्ण का माधुर्यदर्शन कर आनन्दमग्न होकर उन्हें साक्षात् समझकर यह श्लोक पढ़ रहे हैं। यह महः या ज्योति ही आनन्द है; जिससे सम्यक् आनन्द प्रकट होता है, वह मूर्त आनन्द ही क्षण-क्षण नव-नव रूप में प्रकाशित हो रहा है। फिर चारों ओर देखकर, “राधापयोधरोत्संगशायिनेऽशेषशायिने”[1] अर्थात् श्रीराधा के पयोधरों में शयन करने वाले को नमस्कार, अशेषशायी श्रीकृष्ण को नमस्कार- इस प्रकार की लीलायें करने वाले श्रीकृष्ण के दर्शन कर बोले- व्रजसुन्दरियों का स्तनप्रदेश ही जिनका साम्राज्य या सुखद स्थान है।
- “सुखरूप कृष्ण करे सुख-आस्वादन।
- भक्तगणे सुख दिते ह्लादिनी कारण।।
- ह्लादिनीर सार अंश तार प्रेम नाम।
- आनन्द- चिन्मय रस प्रेमेर आख्यान।।
- प्रेमेर परम सार महाभाव जानि।
- सेइ महाभावरूपा राधाठाकुराणी।।”[2]
ह्लादिनीशक्ति सुखस्वरूप श्रीकृष्ण को भी सुख दिया करती हैं। ह्लादिनीशक्ति की मूर्तिमती अधिष्ठात्रीदेवी महाभावस्वरूपिणी राधारानी हैं और उन्हीं की कायव्यूह- स्थानीया हैं सब व्रजबालायें। साक्षात् श्रृंगार होकर भी श्रृंगाररसवासना के मूर्तस्वरूप श्रीकृष्ण के लिए सुखरूप होते हुए भी गोपियों के स्तनप्रदेश से सुख प्राप्त करना ही समीचीन है। अथवा मनोरम स्तनयुक्त व्रजगोपियों के लिए के लिए श्रीकृष्ण ही परम सुखदाता या साम्राज्य हैं, कारण- व्रजसुन्दरियों के स्तनतटरूपी साम्राज्य से श्रीकृष्ण परमसुख अनुभव करते हैं, इसलिए उसी से परस्पर को सुखानुभव सुलभ होता है। व्रजदेवियों के निर्मल प्रेम में स्वसुख वासना की गन्ध भी नहीं होती, फिर भी श्रीकृष्ण को सुखी देखकर उन लोगों के सुख का सिन्धु उच्छलित हो उठता है। श्रीचैतन्यचरितामृत में लिखा है-
- “आर एक अद्भुत गोपीभावेर स्वभाव।
- बुद्धिर गोचर नहे जाहार प्रभाव।।
- गोपीगण करे जबे कृष्ण दरशन।
- सुखवाञ्छा नाहि, सुख हय कोटिगुण।।
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