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श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक पुनः चक्षुगोचर की तरह श्रीकृष्ण को निकट आते देखकर उन्हें विचित्र लीला-वेश आदि से युक्त अनुभव कर यह श्लोक पढ़ रहे हैं। ‘देवः असाधारण द्युति और क्रीड़ा से युक्त श्रीकृष्ण। (‘दिव्’ धातु ज्योति और क्रीड़ा के अर्थ में) ये ये श्रीकृष्ण आ रहे हैं- (सम्भ्रम से भरकर द्विरुक्ति)। वे किस तरह आ रहे हैं? वेणुवादन करते हुए। कि साधन द्वारा? अद्भुत श्रीचरणों से चलकर, यान आदि में बैठकर नहीं। अहो, मेरे भाग्य की कैसी महिमा। अपने श्रीचरण मुझे दिखाते हुए आ रहे हैं। कैसे चरण? त्रिभुवन-सरस। श्रीचरण साक्षात् रसस्वरूप हैं, परमानन्दस्वरूप। इनसे बढ़कर और सरस वस्तु त्रिभुवन में नहीं। ये चरण ही मधुर रस चमत्कारिता की परावधि हैं। अथवा जिन श्रीचरणों के दर्शन कर त्रिभुवन सरस या अनुरागमय होता है।’
और कैसे? ‘दिव्यलीलाकुलाभ्यां’ ये चरण ही दिव्य गति और लीलासमूह के आश्रय हैं। अथवा जिन लोगों की दिव्य लीला है, उन्हीं गोपियों की आकुलता जगाते हैं। अतएव दिशा-दिशा में तरल हैं। गोपियाँ जिस-जिस दिशा में जा रही हैं, उन्हें ले आने के लिए श्रीचरण अति तरल या चञ्चल हैं। और कैसे हैं? ‘दृप्तभूषादराभ्याम्’ नूपुर आदि से जो नाद निकल रहा है, उसके द्वारा आदृत हैं ये चरण। श्रीचरणों की गति से उल्लसित है नुपूरों का नाद, वह श्रुतिगोचर हो रहा है। ‘दृप्तभूषाधराभ्याम्’ पाठ का अर्थ होगा- उद्रिक्त हुई है चरणभूषण नूपुरों की जो ध्वनि, उसके द्वारा जो चरण ‘भूषा’ अर्थात् अलंकार के ‘धरा’ या पोषक बने हैं। वे श्री चरण ध्वज वज्र आदि चिह्नों से युक्त होने के कारण अलंकारों की परिपुष्टि कर रहे हैं। और कैसे हैं? ‘अशरण-शरणाभ्याम’ जिनकी अन्य कोई शरण नहीं, जो अनन्यगति हैं- ऐसे अशरण हम लोगों की एकमात्र शरण या आश्रय। उन श्रीचरणों को छोड़ अन्यत्र जिनका अभीष्टिसिद्ध नहीं होता, उनके रक्षक हैं ये श्रीचरण।।81।।
- श्रील यदुनन्दन का पद्यानुवाद
- एइ ना आइसे श्रीगोविन्द।
- अद्भुत-चरणद्वय, त्रिभुवनानन्दमय,
- ताते चलि आइसे मन्द मन्द।।
- किम्वा जाते सुश्रृंगार, रससंक्षालित सार,
- सेइ दुइ चरण आइसे चलि।
- दिव्य जेइ लीला अति, मत्तेभ निन्दित गति,
- ताते पूर्ण जे पद सुबलि।।
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