श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘श्रीकृष्ण के जो पादपद्म समस्त भुवनों की शोभा के नित्यलीला के आस्पद हैं, जो पादपद्म कमलश्रेणी की शोभा का गर्व खर्व करते हैं, जो प्रणत जनों को आश्रय देने में पूर्णतः सामर्थ्ययुक्त होने से आदृ हैं- उन्हीं पादपद्मों से मेरा चित्त कोई अनिर्वचनीय सुख प्राप्त करे।’ अब इस उत्कण्ठाभरी प्रार्थना की सफलता पर उल्लास के साथ यह श्लोक पढ़ रहे हैं। यही यही देव (प्रत्यक्ष देखने के कारण द्विरुक्ति) अपने श्रीचरणों से चलकर आ रहे हैं। कैसे? अद्भुत रंगढंग से। वह अद्भुतत्त्व ही इस श्लोक में बता रहे हैं। जिन चरणों में त्रिभुवन की सभी वस्तुएं सरस या आनन्दित होती हैं। श्रुति भी कहती हैं- “विष्णोः पदे परममध्व उत्सः” श्रीकृष्ण की श्रीपादपद्म अखिल मधु या आनन्द के उत्स हैं। उसी भूमापुरुष श्रीकृष्ण के पादपद्मों से घन वर्षा- धारा की तरह अविरत आनन्दरसधार इस तप्त मरुमय धरणी पर झर रही है। इसीलिए मायामय धरणी के वक्ष पर भी यह सुषमा और आनन्द देखने में आता है। विश्व का मायामुग्ध मानव कामिनी- काञ्चन आदि मायिक वस्तुओं में आनन्द की कामना करता है, इसलिये वह शुद्ध आनन्द का आभास कणिका मात्र ही भोग पाता है वह जन्म, मरण, त्रिताप आदि विविध दुःख-ज्वाला से भरा रहता है। जो विवेकशील लोग श्रीकृष्णपादपद्मो क आराधना करते हैं, वे भक्ति महारानी की कृपा से श्रीकृष्णपादपद्मो की विशुद्धमाधुर्यानन्द-धारा का आस्वादन कर सदा-सदा के लिए धन्यहोते हैं। जिसकी ईषत् गन्ध मात्र से ही, (विषयानन्द) की बात दूर, ब्रह्मानन्द भी धिक्कृत होता है। “कृष्णपादपद्म-गन्ध जेइ जन पाय। ब्रह्मलोक आदि सुख तारे नाह भाय।।”[1] श्रील गोस्वामिपाद कहते हैं- अथवा जिन चरणों में त्रिभुवन की सभी वस्तुएँ श्रृंगाररस से संकुलित होती हैं (परिपूर्ण हो जाती है) व्रजबालाओं की उक्ति है- “सजनि जब धरि पेखलुँ कान। तब धरि जगभरि भरल कुसुमशर नयने ना हेरिये आन।।” (गोविन्ददास) फिर ‘दिव्यलीलाकुलाभ्यां’ श्रीचरणों की जो दिव्य लीला है, अर्थात् मत्त गजगति को लजाने वाला जो विलास है, वैसे लीला-विलास की प्रचुरता जिन चरणों में विद्यमान है। फिर ‘दिशि दिशि तरलाभ्याम्’ दिशा-दिशा में जो चरण नृत्य गति से तरल अर्थात् चपल हैं। दृशि सरसाभ्याम् पाठ भी देखने में आता है। उसका अर्थ होगा- वे चरण प्रति बार, जब भी देखो नयी-नयी श्रीकृष्णमाधुरी क्षण प्रतिक्षण ‘नूतनअनुसवाभिनवम्’ (भागवत) ‘नवरे नव नितुइ नव’। उन्हीं श्रीपादपद्मों के संपर्क से व्रज का सभी कुछ नवनवायमान हो उठता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च.
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