श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
सुबोधनी सारंगरंगदा ‘आस्वादबिन्दु’ टीका
‘हाय, हाय ! दैवसामग्री श्रीकृष्ण को आलिंगन करना दूर, मैं तो दो आँखों से उस पद्म लोचन किशोर को देखने की इच्छा करता हूँ।’ अब उसी दर्शन-उत्कण्ठा की सफलता पर बोले- यह लो, मेरे नयनबन्धु आ रहे हैं। कैसे? वे मेरे अनन्यबन्धु हैं, अर्थात् उन्हें छोड़ मेरा अन्य बन्धु नहीं। यही कारण है कि उनका वियोग दुःख असहनीय है। “अत्यागसहनो बन्धुः सदैवानुमतः सुहृत्। एकक्रियं भवेन्मित्रं समप्राणः सखा मतः।।” कैसे आ रहे हैं? आनन्द द्वारा कन्दलित या प्रपुल्लित जो केलिकटाक्ष है, उसमें विद्यमान है उनकी शोभा। फिर विलासयुक्त मुरलीनिनादरूपी अमृतवर्षण से मेरे कर्णों को सींचते आ रहे हैं। व्रजबाला के भाव से भावित है कवीन्द्र श्रीलीलाशुक का चित्तमन। इसी श्यामरूप और वेणुरव पर ब्रजबालाओं के नयन-मन की मुग्धता पदकर्ताओं के पदों में देखने को मिलती है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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