श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अर्थात् ब्रह्मा ने वृन्दावन में अद्वय, अनन्त, अगाधबोधस्वरूप परब्रह्म श्रीकृष्ण को पूर्ववत् गोवत्स-गोपबालक- अन्वेषणपरायण दधिओदन- ग्रासहस्त (कौर हाथ में लिए) गोपबालक- लीलारसमग्न रूप में देखा। ब्रह्ममोहनलीला में ब्रह्माजी श्रीकृष्ण के गोपबालकों और गोवत्सों का हरण कर त्रुटिकाल (चौथाई क्षण) के पश्चात् व्रज में लौट कर आये, तो यहाँ एक वर्ष बीत गया। इस एक वर्ष में श्रीकृष्ण ने स्वयं ही असंख्य गोवत्सों और गोपाबालकों के रूप में बात्सल्यवती गोपियों और गायों का प्रेमरस आस्वादन किया। ब्रह्मा व्रज के आकाश में आकर श्रीकृष्ण को पूर्ववत् गोपबालकों और गोवत्सों के साथ विहार करते देखकर विस्मित हुए; सोचने लगे कि श्रीकृष्ण उनके द्वारा चुराये गये गोवत्स-गोपबालकों को लाकर उनके साथ विहार कर रहे हैं। फिर वे संदिग्ध चित्त से मोहित हुए। इस प्रकार अपनी माया से स्वयं ही मुग्ध होकर ब्रह्माजी ने जैसे ही गोवत्स-गोपबालकों पर दृष्टि डाली, वैसे ही उन सबको नवनीरदवर्ण, पीतवास, शंख-चक्र- गदा-पद्मधारी, मणिमुकुटधारी, वनमाला – परिशोभित चतुर्भुज मूर्तियों में देखा। सभी स्वप्रकाश परमानन्द की घनूभूत मूर्तियाँ। सिद्ध ज्ञानीजन भी ज्ञानयोग से उनके स्वरूप की उपलब्धि नहीं कर सकते। ब्रह्माजी श्रीकृष्ण के अनन्त ऐश्वर्य के साथ उनकी अनन्त ज्योतिर्मय मूर्तियों के दर्शन में असमर्थ होकर मूर्च्छितप्राय हो गये, तो श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया का आवरण दूर किया, और तुरन्त ही ब्रह्मा एक वर्ष पूर्व के गोपबालक गोवत्सों की खोज में लगे एकाकी श्रीकृष्ण को देख पाये। इससे यही प्रमाणित हुआ कि श्रीकृष्ण के एकरूप में बहुरूप और बहुरूप में एकरूप कोई आश्चर्य नहीं। अथवा ‘अकारो विष्णुरुच्यते’ इस मृति वाक्य से अलोक शब्द का अर्थ विष्णुलोक होता है, इसलिए ‘अलोकपालिने’ का अर्थ होगा- जो विष्णुलोक अर्थात वैकुण्ठलोक का पालन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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