श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
वह रस मानो वंशीनाद के पथ पर अमृत प्रवाह विगलित कर स्वर के स्रोत में तैरता आ रहा है। कैसी वाणी है? ‘मत्त सौभाग्यभाजम्’ उस रस में मत्त जो सौभाग्य है, उसका भजन करती है अथवा यह मत्त और सौभाग्यवान् सभी का चित हरने वाली है। और कैसी परिणति? जो माधुर्य द्वारा दुगुना शीतल मुखचंद्र वहन करते हैं। श्री चैतन्यदास गोस्वामी कहते हैं- वंशीरन्ध्रों में विगलित अमृत प्रवाह से जगत् को सिञ्चित कर रहे हैं। कितनी दूर सींच रहे हैं? मेरी वाणी की सीमा में सींच रहे हैं। कैसे वाक्य? जिनने मत्त या अस्थिर होकर भी श्रीकृष्णविषयक वर्णन का सौभाग्य प्राप्त किया है।।75।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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