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श्रीलीलाशुक बोले- ओहो ! मेरा क्या भाग्य है ! मेरे भाग्यनिधि नेत्रों के सामने आकर खड़े हैं। वे कैसे हैं? “माधुर्येण द्विगुणशिशिरं वक्त्रचन्द्रं वहन्ती” मुख स्वभाव से ही शीतल है, माधुर्य द्वारा दुगुनी शीतलता वहन कर रहे हैं। माधुर्य क्या है? श्रीमद् रूपगोस्वामिपाद ने कहा है- ‘रूपं किमप्यनिर्वाच्यं तनोर्माधुर्यमुच्यते’ देह के किसी अनिर्वचनीय रूप को ही माधुर्य कहा जाता है। श्रीकृष्ण का मुख अनन्त माधुर्य का निलय है; दर्शक के नयनों मन-प्राणों को शीतल करता है। तब द्रष्टा को लगता है-
- “कि हेरिलुँ नागर नवीन किशोर।
- शारद शशधर, बयान मनोहर,
- रंगिणी नयनहि लुबध चकोर।।
- नीलेन्दीवर, सुन्दर लोचन,
- अञ्जन अरुण तरुणि चितचोर।
- माणिक अधरे, मनोहर वंशी,
- रसतरंगें चित मोहित मोर।।
- अमिया वचन, श्रवण अनुरञ्जन,
- गञ्जन नीरद भाष।
- एक आर अनुपम, जगमन मोहन,
- हासि जेनो बिजुरि प्रकाश।।
- नासा तिलफुल, रंगिम मुकुता,
- झलकत कुण्डल गण्डहि लोल।
- चाँचर केश, पाश नव मालती,
- तँहि पर शिखिवर चाँद उजोर।।
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