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सारंगरंगदा
‘रासोत्सवः संप्रवृत्तः’[1] इत्यादिवत् पुनस्तद्विलासारम्भिणं तं निश्चित्याह- तदिदं मम जीवितमुपनतं समीपमागतम्। कीदृशम्- विलासि रासविलासारम्भि। मुखरितो वेणुर्येन। शब्दितवेणोर्विलासयुक्तं वा। तमालनीलम्- कनकवल्लीनां तासां मध्ये तमालवद्भ्राजमानम्। सर्वगोपीमण्डलवक्त्रदर्शनाय तरलाभ्यां विचोलनयो- स्तारकाभ्यामभिरामम्। मुदितमुदितमतिमुदितं वक्त्रचंद्रबिम्बं यस्य। मुदितमानन्दितमुदितवक्त्रचंद्रबिम्बमिति वा।।73।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद बोले- इसके पश्चात् श्रीकृष्ण-गोपियों के साथ रासलीला में प्रवृत्त हुए।
- “रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डमण्डितः।
- योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः।
- प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः।।[2]
इस प्रकार गोपीमण्डलमण्डित रासोत्सव में सम्यग्रूप से प्रवृत्त हुए। योगेश्वर ने दो-दो गोपियों के बीच प्रविष्ट होकर उन लोगों के कण्ठ धारण किये। उस रासोत्सव में प्रत्येक गोपी समझने लगी कि श्रीकृष्ण मेरे निकट हैं। श्रीलीलाशुक श्रीकृष्ण को इस प्रकार देखकर उन्हें रासविलास आरम्भ करने वाला मानकर बोले- यह रहे, मेरे जीवनवल्लभ निकट आ गये। वे कैसे हैं? विलासी- रासविलासारम्भी। जिनके द्वारा वेणु, मुखरित हैं, अथवा जो मुखरित वेणु के विलास से युक्त हैं।
- “श्यामर अंग, अनंग तरंगिम,
- ललित त्रिभंगिम धारी।
- भांङ् विभांगिम, रंगिम चाहनि,
- रंगिणी नयन नेहारि।।
- रसवती संगे रसिकवर राय।
- अपरूप रास, विलास कलारसे,
- कत मनमथ मुरुछाय।।
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