|
|
सारंगरंगदा
अथ परितस्ता दृष्टा चकास गोपीपरिषद्गतो विभुः[1] इत्यादिलीलाविशिष्टं तं विलोक्य सहर्षमाह- एष शिशुः किशोरः श्रीकृष्णः सर्वासामपि विशेषतो मदीयानां स्वसम्मुखस्थ श्रीराधाललितादीनां हृदयमेतन्नो व्रूहीत्यादिना स्वान्तः कोप- प्रश्नश्रवणाद् यन्मृदुस्मितं तेनार्द्रो यो वदनेन्दुस्तस्य मासूयितु मार्हथेत्यादि– पारयेऽहमित्यादि – प्रेमोक्ति- कौमुदीरूपया सम्पत्त्या मदयन्नानन्दयन् विगाहते व्याप्नीतीत्यर्थः। तद्दृष्ट्वा मम हृदयञ्च कीदृक्- पशुपालबालानां गोपकिशोरीणां परिषदं विभुषयतीति। तथा तत्सभैव विभुषणं यस्येति वा। तया वेष्टितो वभावित्यर्थः। अग्रे राधारपयोधरेत्यादौ धेनुपालदयितास्तनस्थलीमित्यादौ तथा वर्णितत्त्वात्। प्रेमवैवश्येन बालपरिषदिति वक्तब्ये बालपरिषदित्युक्तिः। यद्वा, पशुपालानां बाला यस्यां सा पशुपालबाला, सा चासौ परिषच्चेति कर्मधारये पुंवद्भावः किंवा तद्वालगोष्ठीनां विभुषणवद्विभूषणं यस्य सः। तदुक्तम्- वेशेन घोषोचितभूषणेनेति। सामान्यवयस्यवर्गवृत इत्यर्थवस्तु प्रक्रमाप्राप्तः। तथा शीतले विलोले च लोचने यस्य।।71।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- इसके पश्चात् राधारानी गोपरामागण द्वारा परिवेष्टित श्रीकृष्ण को देख पाईं। श्रीरासलीला में श्रीपाद् शुकदेव मुनि ने कहा है- “चकास गोपीपरिषदगतोऽर्चितस्त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्”[2] श्रीकृष्ण गोपीसभा में अवस्थित होकर, उन लोगों के द्वारा अर्चित होकर त्रैलोक्य की सकल शोभा सम्पदा का आश्रय रूप अपना वपु प्रकट कर शोभा पाने लगे। ऐसे लीलाविशिष्ट श्रीकृष्ण के दर्शन कर श्रीलीलाशुक ने सहर्ष यह श्लोक पढ़ा- ये किशोरकृष्ण समस्त गोपियों के विशेषतः मेरे सम्मुखस्थ श्रीराधा ललिता आदि के हृदय में अपने श्रीमुख की लावण्य सम्पदा का विस्तार कर हम लोगों के हृदय को आनन्द-आलुप्त कर रहे हैं।
रास में अन्तर्धान के पश्चात् श्रीकृष्ण जब पुनः गोपीमण्डली में आविर्भूत हुए, तो उनसे मिलकर गोपियों ने परमानन्द प्राप्त किया। किन्तु श्रीकृष्ण ने अन्तर्हित होकर उन लोगों को जो विरह दुःख दिया है, उस विरहानल के अब निर्वापित हो जाने पर भी वह किञ्चित धूमायित (धूँए से युक्त) अवस्था में था। श्रीकृष्ण ने उन्हें जंगल में त्यागकर दुःख दिया है, इसका कारण श्रीकृष्ण के मुख से ही सुनने की इच्छा से इन लोगों ने ईषद् कुपित होकर कूट प्रश्न की अवतारणा की थी।
- “भजतोऽनु भजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम्।
- नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः।।”[3]
|
|