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- किशोर आकृति वस्तु गुणेर सागर। मदनमोहन वेश श्याम कलेवर।।
- मने चिन्ते कृष्ण गोपनारी परतंत्र। सहजेइ नारीगण ना हय स्वतंत्र।।
- केमने आसिबे हेथा स्वतंत्र हइया। व्याकुल हइला मन ए सब चिन्तिया।।
- वेणुगान आरम्भिला शुनि गोपीगण। परम आनन्दवृन्दे आकर्षित मन।।
- निर्वाण शब्देते कहि आनन्द विशेष। विश्व प्रकाशे कहे एइ अर्थ शेष।।
- हस्ते लैया वेणु गान करिया गोविन्द। प्रणतगणेर मने बाढ़ाय आनन्द।।
- गुरु लज्जा धर्म आदि श्रृंखला हइते। मुक्त करि आने कृष्ण आपन इच्छाते।।
- व्रजनारी वेणु शुनि उन्मत्त हइया। आइसे कृष्णेर स्थाने ना चाय फिरिया।।
- नूपुर किंकिणी बाजे कंकण झंकरे। से ध्वनि शुनिया कृष्ण निर्व्याकुल धरे।।
- बहु कल्पवृक्ष हैते उदय गोविन्द। सर्वगोपी अभीष्ट पूरण निरद्वन्द्व।।
- रसिकेन्द्रमौलि कृष्ण आरम्भिला रास। बहु व्रजांगना संग हास परिहास।।
- भंगि करि वजांगना माझे हैते राधा। आकर्षये निगूढ़ विलास लोभे साधा।।
- निकुञ्जे विशेष रस आस्वाद लागिया। आरम्भिलो रासलीला आनन्दित हैया।।
- द्वितीय श्लोकेर अर्थ कहिल विस्तार। तृतीय श्लोकेर एबे शुनो अर्थसार।।
- पाछे बाह्य दशार अर्थ संक्षेपे कहिबो। अंतर्दशार अर्थ किछु विस्तारि बलिबो।।
- निज इष्ट अंतर्दशार अर्थ सविशेष। सेइ अर्थ विस्तारिबो जानिते उद्देश।।
- अतः पर लीलाशुक महाभागवत। वेश्यामुखे राधाकृष्ण लीला शुने जत।।
- राधाकृष्ण अनुराग प्रबंध शुनिया। अति लोभ उपजलि आपनार हिया।।
- रागानुगा मार्गे कृष्णभजना करिते। परम लालसा तार बाड़ि गेलो चिते।।
- एइ रागानुगा पथे अन्य भक्तगण। अनुत्पन्नरति कृष्णे साधक लक्षण।।
- ताहारह वाञ्छित देह मनेते कल्पिया। कृष्णसेवा आदि करे एकान्त हइया।।
- जातरतिगणे ताहा सदा स्फूर्ति हय। निज सुख दुखे कभु ना बाधय।।
- लीलाशुक उपजिलो मधुरजाति रति। क्रम अनुराग दशा ताते प्राप्त अति।।
- सदा सेइ देह स्फूर्ति हय तार मने। रसामृतसिन्धु गन्थे जे सब लक्षणे।। 2।।
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