श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीपाद भट्ट गोस्वामी ने इस श्लोक की व्याख्या में कहते हैं- प्रश्न सम्भव है, यदि श्रीकृष्ण हाथ दूर ही रहते हैं, तो श्रीलीलाशुक की अभिलाषा कैसे पूरी होगी? तभी कवीन्द्र इस श्लोक में अपने प्राणनाथ की अभीष्ट सेवा की आकांक्षा कर रहे हैं। विचित्र शिखिपिच्छ और पुष्पों द्वारा विभु श्रीकृष्ण की ‘बहल’ अर्थात् समृद्ध केशराजि कब बनाऊँगी? ‘विभु’ शब्द के प्रयोग में केलिस्फुरणगत रसविकलता के कारण क्रियापदों का उल्लेख नहीं कर सके हैं। अथवा भिन्न-भिन्न अंगों के भिन्न-भिन्न रूपों की सेवाओं की प्रार्थना एक क्रियापद से सम्पन्न होना संभव नहीं, तभी क्रियापद का उल्लेख नहीं किया। केश और पुष्प और सौरभ के लोभ से आये भ्रमरों की बाधा का स्मरण कर बोलीं- मुखकमल की सुगन्ध से मुखपद्म परर गिरे विरलीभूत भ्रमरों को कब हटाऊँगी? भौरे को भगाने के लिए उनके मृदुल वचन कब सुनूँगी? उस समय उनके समुच्छलित महा आनन्दसिन्धु की तरंगों से आन्दोलित विशाल नयन कब देखूँगी? उनके मृदुल वचन सुनने और सानुराग दर्शन करने के पश्चात स्नेहरस से स्पन्दित मधुर अधर वंशीसहित (कब) (क्या) देखूँगी? दृष्टि और वचनमाधुरी से समन्वित मधुर वचन कब देखूँगी? तब उनका चपल चरित्र या लीलामाधुरी भी देखूँगी? यह कहकर दीर्घ श्वास छोड़कर कवीन्द्र उसी आशा को लेकर रहने लगे।।61।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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