श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
राधारानी भ्रमर से कृष्ण के विषय में पूछ रही हैं- ‘हे सौम्य! आर्यपुत्र क्या इस समय मथुरा में है? वे क्या पितृगृह को, गोपों को, बन्धुबान्धवों को स्मरण करते हैं? कथाप्रसंग में कभी इन किंकरियों की बात करते हैं? अपनी अगरुसुगन्धित भुजायें वे हमारे मस्तकों पर कब रखेंगे?’ इस श्लोक में ‘आर्यपुत्र क्या मथुरा में हैं? वे माता-पिता बन्धुजन और आत्मीय स्वजनों की बात स्मरण करते हैं?’ इन वाक्यों में अपनी बात का उल्लेख न कर गंभीरता दिखाई है। ‘कभी दासियों की बात करते हैं’- इसमें दैन्य व्यक्त हुआ है। ‘हमारे मस्तकों पर हाथ कब रखेंगे?’ – इसमें चपलता और उत्कण्ठा प्रकट हुई है। श्रीमद्भागवत के उक्त श्लोक के चार चरणों में क्रमशः गाम्भीर्य, दैन्य चापल्य और उत्कण्ठा प्रकाशित है। यहाँ चार श्लोकों में इस श्लोक के ये गाम्भीर्य दैन्य आदि व्यक्त हुए हैं। उनमें से प्रथम प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण की दर्शन- उत्कण्ठा में ‘अपि वत’ श्लोक के प्रथम चरण की तरह सगाम्भीर्य (गंभीरता के साथ) प्रलाप वर्णित हुआ है। इस प्रलाप का अनुवाद कर श्रीलीलाशुक ने कहा- ‘हे कृष्ण! तुम्हारा महः अर्थात् नीलकान्तियुक्त सुन्दर ज्योतिर्मय वपु मैं कब देखूँगा?’ वृन्दावन में रासरसोन्मत्त व्रजांगनाओं द्वारा प्रगाढ़रूप से आलिंगन किए श्रीकृष्ण को देखने की आकांक्षा इसमें व्यक्त हुई। ‘अपि वत’ श्लोक का भाव यही है कि श्रीकृष्ण जब मथुरा में है, तो इच्छा होते ही आकर दर्शन दे सकते हैं, वृन्दावन कोई दूर नहीं। उसी प्रकार श्रीकृष्ण की नीलकान्ति दर्शन से उनके दर्शन संभव हैं- ऐसी गाम्भीर्यपूर्ण उक्ति है। श्रीकृष्ण का वह रूप कैसा है? ‘निःसीमं’ अर्थात् सौन्दर्य की अवधि से शून्य- अनन्त सुन्दर- अनन्त मधुर! और मुझे त्यागकर जो अन्यत्र गमन है, वह भी निर्मर्याद (सीमा, मर्यादा का उल्लंघन)। अतएव अन्य नायिका के अंगसंगजनित चन्दन, कुंकुम, आलता आदि के चिह्नों से स्तवकित (प्रफुल्लित) नीलकान्तिधारा का चमतकारित्व है ही। तथापि अन्य नायिका के संग की बात छिपाने के लिए मेरी प्रतारणा करने में जो चपलता दिखाई है उससे उनका मुख अल्पस्मितयुक्त हो रहा है- ‘अस्तोकस्मिभरं’, और प्रीति-विस्फारित नेत्र अति आयत हो गए हैं- ‘आयताक्षं’। इस उक्ति द्वारा चपलता प्रकट हुई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 10/47/21
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