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‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- इसके पश्चात् श्रीकृष्ण बोले- हे लीलाशुक, विशुद्ध प्रगाढ़ प्रेमविलसित तुम्हारा यह वाक्य सत्य है। ऐसे अनुराग का पुरस्कार स्वरूप कोई मूल्यवान धन मेरे पास नहीं; केवल एकमात्र मैं ही इसका मूल्य हूँ। मैं तुम्हारे वशीभूत हुआ। तुम्हें वृन्दावन आये कुछ ही दिन हुए हैं। तुम अपने इस नरदेह का आस्वाद्य श्रीवृन्दावन- रास- दर्शन आदि सुखसमूह कुछ दिन अनुभव करो; इसके पश्चात् तुम मेरी इस लीला में प्रवेश करोगे।
भगवान् भी कामना करते हैं कि प्रेमिक भक्त यथावस्थित देह से वृन्दावन– वास और रास आदि लीलाओं का स्फुरणरूपी अपूर्व आस्वादन प्राप्त करे. नरदेह से इस नरदेह का आस्वाद्य श्रीवृन्दावन- रास- दर्शन आदि सुखसमूह कुछ दिन अनुभव करो; उसके पश्चात् तुम मेरी इस लीला में प्रवेश करोगे।
भगवान् भी कामना करते हैं कि प्रेमिक भक्त यथावस्थित देह से वृन्दावन-वास और रास आदि लीलाओं का स्फुरणरूपी अपूर्व आस्वादन प्राप्त करे। नरदेह से व्रजमंडल में वास करने का और भजन का आनन्द तो नित्यसिद्ध जनों का भी काम्य है, साधनसिद्धों की तो बात ही नहीं। साधक शरीर से व्रजवास का आनन्द कम नहीं। श्रील प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद ने लिखा है-
- “कदा वृन्दावरण्ये मधुरमधुरानन्दरसदे,
- प्रियेश्वर्याः केलिभवन – नवकुञ्जानि मृगये।
- कदा श्रीराधायाः पदकमलमाध्वीकलहरी,
- परिवाहैश्चेतो मधुकरमधीरं मदयिता।।”
- “राधाकेलिनिकुञ्जवीथिषु चरन् राधाभिधामुच्चरन्
- राधाया अनुरूपमेव परमं धर्म रसेनाचरन्।
- राधायाश्चरणाम्बुजं परिचरन्नानोपचारैर्मुदा
- कर्हि स्यां श्रुतिशेखरोपरि चरन्नाश्चर्यचर्यां चरन्।।”[1]
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