गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 10
क्या है? सुनते हैं विदुर की पत्नी ने केला, नहीं, केले का छिलका खिलाया था भगवान को। पत्रं पुष्पं भी नहीं था वह तो त्याज्य अंश था। महाभारत में ऐसी कथा नहीं है पर भक्त माल में यह कथा है। फूल, फल, पानी, ‘तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि’। हमको बचपन में साधुओं में बहुत श्रद्धा थी। पन्द्रह-सोलह वर्ष के थे तो कई बड़े मस्त महात्माओं के पास गया। उन्होंने इलायची उठाकर दे दी तो बिना छीले ही खा जाता था। एक दिन किसी महात्मा ने पिस्ता दे दिया तो ऐसे ही मुँह में डाल दिया - तब उन्होंने डाँटा - बोले, नहीं यह छिलका गले में, कलेजे में जाकर नुकसान पहुँचावेगा, ऐसे नहीं खाना चाहिए। प्रेम में, श्रद्धा में, वस्तु का विचार नहीं होता। भगवान भी प्रेम-मुग्ध अवस्था में ही रहते हैं। ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।’ तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः। वस्तु नहीं देखता है कि वह कितनी कीमत की है, कितनी बढ़िया है, कहाँ से लायी गयी है, कितने श्रम से उत्पन्न हुई है, देखता यह है कि यह पूजा करने वाला प्रेम से कर रहा है कि नहीं। ‘प्रयतात्मनः’ का अर्थ है उसमें कोई स्वार्थ नहीं है। उसका मन उसके हाथों में है। तो यह बात हुई कि भगवान की पूजा में वस्तु का महत्त्व नहीं है, प्रेम का महत्त्व है। अब यह देवता की पूजा नहीं रही, पितर की पूजा नहीं रही - यह भगवान की पूजा है, विलक्षण हो गयी। अब यज्ञ में यह बात है। ‘यान्ति मद्याजिनोऽपि मां।’ प्रश्न यह उठा कि क्रियाविशेषण को धर्म कहते हैं। जब शास्त्रोक्त कर्म, शास्त्रोक्त रीति से, शोस्त्रोक्त अधिकारी, शास्त्रोक्त समय पर करता है तब यज्ञ सम्पन्न होता है। यह गीता की विशेषता क्या है? इसमें तो ब्राह्मणादि अधिकारी की अपेक्षा है कि ब्राह्मण करे, वेदमन्त्र पढ़े यह भी जरूरी नहीं है। ‘मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे। विद्वान् वदति विष्णवे।’ पण्डित बोलता है तो ‘विष्णवे नमः’ बोलता है और मूर्ख बोलता है तो ‘विष्णाय नमः’ बोलता है - अशुद्ध हो गया। ना-ना प्रेम में कहीं अशुद्धि होती है। दोनों का समान फल मिलता है। भगवान को व्याकरण का उतना ज्ञान नहीं है, जितना हमारे पण्डित लोंगो ने व्याकरण जोड़ा है। भगवान का तो स्वाभाविक व्याकरण है। भागवत में लिखा है ‘वयांसि तद्व्याकरणं विचित्रं।’ भगवान का व्याकरण क्या है? चिड़िया। जो चिड़िया की तरह-तरह की बोली बोलती है और उनकी जो भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृति-प्रकृति होती है, यही भगवान का नामरूप व्याकरण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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