गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 5
‘प्रसादस्तु प्रसन्नता’। हमारे हृदय की निर्मलता, प्रसन्नता, शान्ति कहीं छिन न जाय। सारे सद्गुण आपमें निवास करेंगे और आपका मन अपनी आत्मा में जो कि परमात्मा का स्वरूप है, उसमें स्थित रहेगा तब आप आत्मा नहीं, महात्मा हो जायेंगे। आत्मा की सिद्धि विवेक से होती है और परमात्मा की प्राप्ति अनुभव से होती है। लेकिन महात्मा कैसे होता है? स्वयं को महात्मा होना हो तो सद्गुण चाहिए। ‘भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।’ इसके लिए परमात्मा का ज्ञान आवश्यक है। संसार की जितनी भी वस्तुएँ हैं उनका उत्स परमात्मा है। ‘प्रभवः प्रलयः स्थानं’ - उसी में-से सब निकलते और उसी में सब लीन होते हैं। बस वह जान लो कि परमात्मा के सब बच्चे हैं और सब परमात्मा की गोद में हैं और अपने बच्चों के रूप में परमात्मा ही है। आप जहाँ देखेंगे - अच्छी-अच्छी शक्ल बनाकर आये हैं - स्त्री के रूप में तो, पुरुष के रूप में तो, पेड़-पौधों के रूप में तो, कहीं कोइ अन्य है ऐसा मन बनता ही नहीं। अच्छा अब उसकी प्राप्ति के लिए कायिक, मानसिक, वाचिक व्यापार - संस्कृत भाषा में व्यापार माने वाणिज्य नहीं होता है। मन, वचन, शरीर इनके द्वारा जो भी क्रिया होती है - व्याहृत उसको व्यापार बोलते हैं। संस्कृत भाषा में व्यापार शब्द बड़े व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। विशेष वह पालक और पूरक है। पाल जो अधूरे को पूरा कर दे। जिसके पास भोजन नहीं है उसकी विशेष रूप से सम्पूर्ण भोजन पहुँचा दें - इसका नाम व्यापार है। और जो सूख रहा है उसको हरा-भरा कर दें, पोषण दे दें, पालन करें पोषण करें उसका नाम होता है पाल और विशेष रूप से और पूर्ण रूप से जो भरपूर कर दें लोगों को, जिसके पास जो चीज न हो, उसके पास पहुँचा दें। तो यह शरीर से, मन से, वाणी से, जो हमारा व्यापार हो, जो भी क्रिया हो - वह भगवान के लिए हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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