गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 5
मनोरथेन - मन की मोटर पर चढ़े और असत्य स्थान पर, जहाँ नहीं जाना चाहिए वहाँ चले जाते हैं। और जिनके हृदय में भगवान हैं - भगवान की भक्ति है उन्हें कहीं नहीं जाना पड़ता है। महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। देवता की जो प्रकृति है, सम्पदा है, वह प्रकृति, वही सम्पदा है। माशुचः। भगवान कहते हैं - अर्जुन दैवी सम्पदा प्राप्त हो गयी है - ‘अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।’ ‘दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तपमार्जवम्!’ तीन ऊपर पहले जो हैं वे मानसिक है। ‘अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।’ और दानं, दमश्च, यज्ञश्च, स्वाध्यायः ये बाहर के हैं। दान करो, मन को संयम में रखो, यज्ञ करो। यह दैवी सम्पदा की पहचान है। महात्मा कौन है? जिसके अन्दर दैवी सम्पदा हो। ज्ञानी भी हो और उसमें दैवी सम्पदा न हो तो उस ज्ञानी को महात्मा नहीं मानेंगे। और कोई भजन-पूजन खूब करता हो और उसमें दैवी सम्पदा नहीं है तो भजन-पूजन करने वाला हो सकता है पर वह महात्मा नहीं हो सकता। खूब योगी हैं पर समाधि से उठने पर आसुरी सम्पत्ति उसमें आ जावे तो वह महात्मा नहीं हो सकता। वह योगी हो सकता है, महात्मा नहीं। भजन-पूजन करने वाला हो सकता है, महात्मा नहीं। महात्मा होने की एक ही शर्त है कि अपने जीवन में उत्तम गुण होने चाहिए। इस गुण की एक भूमिका बताते हैं। ‘भजन्ति अनन्यमनसः।’ अब महात्मा की तात्त्विक पहचान आयी। ‘वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः। बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।’ बहुत जन्म के बाद ज्ञानवान होता है। बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् भवति। ततः वासुदेवः सर्वमिति मां प्रपद्यते। अनेक जन्म से सिद्ध होने पर ज्ञान प्राप्ति होती है और ज्ञान की प्राप्ति होने पर वासुदेवः सर्वम् इति मां प्रपद्यते। सब कुछ परमात्मा है यह अनुभूति होती है। ‘स महात्मा सुदुर्लभः।’ वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। अब देखो जब तक सब परमात्मा, वासुदेव नहीं होगा तब तक भजन अनन्य मनसा होगा ही नहीं। अनन्यमनसा तभी हो सकता है, जब भगवान से अन्य कुछ न हो। जब तक अन्य रहेगा तब तक अन्यमना होगा। जब अन्य नहीं रहेगा तो अनन्यमना होगा। गीता में इस अनन्यता की चर्चा अनेक बार की है। ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः’ - इसी अध्याय में आने वाला है। ‘अनन्यचेता सततं यो मां स्मरति नित्यशः।’ पहले आ चुका है। भगवान का भजन करो। एक बात आप देखो कि आप चाहते क्या हो? जिस चीज को आप चाहते हो उसमें महत्त्वबुद्धि है कि नहीं। बिना महत्त्वबुद्धि हुए, उस चीज को कीमती माने बिना आप उसको चाहेंगे कैसे? और जब उसकी इतनी कीमत मानें कि पाने के लिए व्याकुल हों। जिसमें महत्त्व बुद्धि होगी, और उसको पाने के लिए आप घर, मजहब, ईमानदारी, बेईमानी स्वीकार करेंगे। इसलिए भक्ति का अर्थ है कि आपके जीवन में जो महत्त्वबुद्धि है वह भगवान के प्रति हो जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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