गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 5
बिना भगवान में महत्त्वबुद्धि सर्वोपरि हुए भक्ति प्रकट नहीं होगी। पहले यह देखो कि आपके अर्थ से भी महत्त्वपूर्ण भगवान हैं। आपकी कामनापूर्ति से भी महत्त्वपूर्ण भगवान हैं। आपके धर्मानुष्ठान से भी महत्त्वपूर्ण भगवान हैं। मोक्षदाता प्रभु मोक्ष की अपेक्षा भी महान हैं। जब भगवान में महत्त्वबुद्धि होगी, भगवान ही सबसे अधिक कीमती वस्तु है, वैस मूल्यवान पदार्थ सृष्टि में और कोई नहीं है। अब आपके सामने विकल्प आ गया। क्या आप भगवान के लिए संसार की बेईमानी छोड़ते हैं? चोरी छोड़ते हैं?, जारी छोड़ते हैं?, हिंसा छोड़ते हैं? आप भगवान को छोड़ते हैं? एक ओर आपको झूठ से, बेईमानी से, चोरी से, जारी से मिलने वाली चीज है और एक ओर भक्त् से मिलने वाले भगवान हैं तो आप अपने हृदय में क्या रखना पसंद करेंगे? भगवान की भक्ति रखना पसंद करेंगे कि दुनिया के लिए अपने चित्त को विक्षिप्त करना, मलिन करना, दूषित करना पसंद करेंगे? इसलिए अनन्यमना होकर के, क्योंकि परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई वस्तु नहीं है। जहाँ देखता हूँ वहाँ तू-ही-तू है। सद्गुण को अपने जीवन में धारण करने की यही युक्ति है - सर्वत्र भगवद्दर्शन। एक बात और आपको सुनाता हूँ - असल में सद्गुण् बहुत प्रिय है। जिस शान्ति से असत्य छूटता है उस शान्ति का नाम सत्य है। असत्य को छुड़ानेवाला है सत्य। यह तो ठीक है परन्तु बोलने का नाम सत्य नहीं है। मौन भी तो एक सद्गुण है। और वह तो मानसिक तप है - मौन। ‘भावसंशुद्धि’ - किसी प्रसंग में आप मौन रह सकते हैं या बोलते-ही-बोलते जायेंगे तो झूठ जरूर बोलेंगे। निरर्थक जरूर बोलेंगे। मौन धारण का भी सामर्थ्य होना चाहिए। असत्य से बचाने वाला मौन है और उसका नाम शान्ति है। इसी मुण्डकश्रुति के भाष्य में आचार्य ने सत्य का अर्थ सत्य बोलना नहीं लिखा। उन्होंने लिखा, असत्य भाषण का परित्याग। परित्याग तो मौन में भी होगा और सत्य भाषण में भी होगा। असत्य का त्याग शान्ति है। और चोरी का त्याग भी शान्ति है। हिंसा का त्याग शान्ति है। परिग्रह का त्याग शान्ति है और कामवासना के उद्रेक का त्याग शान्ति है। असल में आप अपने हृदय में जो वस्तु शान्ति देती है उसको पकड़ लें तो चाहे कुछ हो, चाहे घी का घड़ा ढरक जाय हम तो अपने हृदय को शान्त रखेंगे - अशान्त नहीं होने देंगे। हमारे हृदय की प्रसन्नता, हमारे हृदय की निर्मलता खो न जाय। और कुछ ध्यान रखने की जरूरत ही नहीं है। आप इतना ही ध्यान रखो कि हमारे हृदय में शान्ति बनी रहे। हमारा प्रसाद कोई छीन न ले जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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