गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 1
अब आप दूसरी बात पर ध्यान दें। धर्म का अनुष्ठान होता था कामना पूर्ति के लिए अथवा अन्तःकरण की शुद्धि के लिए। यदि सकाम भाव से धर्म किया जाय तो कामना की पूर्ति होती है। आप जिस किसी कामना से भी धर्मानुष्ठान करेंगे आपके संकल्प में बल आयेगा। क्योंकि धर्म में कुछ छोड़ना पड़ता है, कुछ पकड़ना पड़ता है। कुछ देना पड़ता है, कुछ नियम ग्रहण करने पड़ते हैं और वे बिना आत्मबल के पूरे नहीं हो सकते। जिसमें आत्मबल नहीं है वह कुछ छोड़ने के लिए चलेगा तो भी जब उसके मन में लालच का, तृष्णा का उदय हो जायेगा तो वह छोड़ेगा नहीं। इसी तरह उसके मन में कुछ नियम पालन करने का विचार आयेगा तब वह मन निर्बल होने के कारण नियम का पालन नहीं कर सकेगा। मनुष्य के मनोबल की, आत्मबल की वृद्धि ईश्वर-विश्वास और मर्यादा-पालन से, धर्मानुष्ठान से होती है। जो अपने नियम का पालन करने के लिए कष्ट सहने को तैयार नहीं है, वह निर्बल रहेगा। जो कष्ट सहकर भी अपनी मर्यादा का पालन करता है, उसके आत्मबल की वृद्धि होती है। निःसन्देह बड़ा बलवान् है वह व्यक्ति जो विपरीत परिस्थितियों में भी धर्मानुष्ठान का, नियम का, मर्यादा का परित्याग नहीं करता। परन्तु धर्मानुष्ठान को केवल एकादशी आदि व्रतों तक अथवा काशी-मथुरा आदि तीर्थों तक अर्थात् अमुक काल से अमुक काल-तक या अमुक धर्म स्थान से अमुक धर्म स्थान तक सीमित कर देते हैं तो उसका फल भी सीमित हो जाता है। धर्म असीम होना चाहिए। वह केवल मन्दिर में न हो, घर में भी हो। वह केवल यज्ञशाला में न हो, हमारे प्रत्येक व्यवहार में भी हो। गीता ने यही किया। इसने धर्म की सीमा को देश, काल एवं समाज की मान्यताओं से ऊपर उठाकर सब जगह व्यापक बना दिया और ज्ञान के क्षेत्र को भी अरण्य में से, जंगल में से, अयोध्या में से बाहर निकालकर सर्वत्र स्थापित कर दिया। अयोध्या का अर्थ भी वही होता है जो अरण्य शब्द का होता है। अयोध्या शब्द की व्युत्पत्ति है नास्ति योध्यो यस्याः। जहाँ युद्ध करने के लिए बाकी ही नहीं है, जहाँ युद्ध है ही नहीं, जिससे कोई युद्ध कर ही नहीं सकता, उसका नाम होता है - अयोध्या। गीता ने धर्म को एकान्त से उठाकर हमारे घर में, सड़क पर, दुकान में, व्यापार-व्यवहार में और ज्ञान को उसके उपदेश-स्थल अरण्य से निकालकर युद्ध भूमि में उपस्थित कर दिया। यह कहावत तो पहले से प्रसिद्ध है कि घोड़े के रकाब में पाँव और ब्रह्मज्ञान! इसका मतलब है कि ब्रह्मज्ञान घोड़े पर चढ़ते समय भी हो सकता और तीर चलाते समय भी हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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