गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 1
तो गीता में मुख्य बात यह आयी कि मामनुस्मर युद्ध्य च। यह आठवें अध्याय का महावाक्य है। इसका अर्थ है ‘मेरा स्मरण करो और युद्ध करो’, ‘युद्ध करो और मेरा स्मरण करो।’ यहाँ हृदय में, अन्तरंग में अनुस्मृति की प्रधानता है और बहिरंग में युद्ध की प्रधानता है। मामनुस्मर युद्ध्य च। में जो ‘च’ है वह युद्ध को गौण कर देता है और मामनुस्मर को मुख्य कर देता है। लड़ते भी चलो और मेरा स्मरण भी करते चलो। अब आपको गीता के आठवें अध्याय की पूर्व पीठिका की भूमिका की चर्चा सुनाते हैं। सातवें अध्याय में भगवान के समग्र रूप के वर्णन की प्रतिज्ञा है। जैसे राजा लोग अपने महल में रहते हैं और उनके कर्मचारी लोग उनका राजकाज सम्हालते हैं। वैसे ही भगवान भी वैकुण्ठ में बैठते हैं और उनके कर्मचारी उनका राजकाज करते हैं। भगवान यदि जीव हो, मनुष्य हो और संसार की देखभाल करने वाला हो तो यही होगा कि वह एक जगह रहेगा। उसके रहने के स्थान का नाम वैकुण्ठ रखो और ब्रह्मलोक चाहे साकेत या गोलोक, बात एक ही है। यदि उसके एक जगह रहने की बात न जँचे तो भगवान निराकार रूप से सब जगह रहता है, ऐसा मान लो। यह भी न जँचे तो जितनी क्रिया हो रही है, उसमें प्रेरक रूप से भगवान ही बैठा है, यह बात मान लो। गीता के सातवें अध्याय में इस प्रसंग को अद्भुत रीति से प्रतिपादित करते हुए यह बताया गया है कि भगवान का जो रूप है, वह समग्र है। समग्र है माने निराकार, निर्गुण ब्रह्म-भगवान सम्पूर्ण जीवों के रूप में विद्यमान है। इस सृष्टि में जो क्रिया-कलाप हो रहा है वह भगवान, जो पन्चभूत है वह भगवान। इनमें जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश सृष्टि-संचालन, पोषण और संहार करते हैं वे भगवान। इतनी उदार दृष्टि से भगवान का, परमेश्वर का वर्णन है कि उसमें एक व्यक्ति भगवान बनकर बैठ जाय - इसकी गुंजायिश नहीं है। उदाहरण के लिए देखें। भगवान कहते हैं कि मत्तः परतरं नान्यत्किन्चिदस्ति मेरे सिवाय दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं। एक परा प्रकृति है और दूसरी अपरा प्रकृति है। दोनों का कारण मैं हूँ। भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।
यह अष्टधा अपरा प्रकृति है। इससे परे जीव प्रकृति है। संसार में जो कुछ भी दिखायी पड़ रहा है। वह परा प्रकृति और अपरा प्रकृति है। इन सबका कारण मैं एक हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 7.4
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