गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 3
मत्तः परतरं नान्यत् किन्चिदस्ति धनन्जय। इसमें भगवान की पूजा की एक प्रक्रिया है, देखो वह क्या है? यह बात संसार के किसी मजहब में नहीं है। यह वैदिक धर्म की विशेषता है। यह मजहबी बात नहीं है। आप पार्थिव लिंग बनाकर पूजा करते हैं। हमको एक पण्डित मिले, उन्होंने बताया कि हमने एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर उनकी पूजा की। मिट्टी की भगवान के रूप में पूजा। बोले हमने गंगाजल में दूध चढ़ाया है, समुद्र में अर्घ दिया है, जल में भगवान की पूजा की है। हमने अग्नि में भगवान की पूजा की है। सूर्य में चन्द्रमा में, भगवान की पूजा की है। हमने प्राणोपासना की है। अपनी साँस में, वायु में, भगवान की आराधना की है। हमने आकाश में भगवान की आराधना की है। यह सब क्या है? दुनिया के किसी मजहब में यह बात नहीं है कि मिट्टी भी भगवान पत्थर शालिग्राम भगवान नर्मदालिंग भगवान जयपुर की गढ़ी हुई मूर्ति भगवान। मार्बल भगवान, लालपत्थर भगवान पार्थिव लिंग जो मिट्टी बनाते हैं-भगवान! किसी मजहब में ईश्वर को सर्वात्मक नहीं मानते हैं। ईश्वर सर्वरूप है-वही सब है, यह बात किसी मजहब में मानी नहीं जाती है। जो ईश्वर नहीं मानते हैं, उनकी तो कथा छोड़ दो। चार्वाक मत में ईश्वर की कोई चर्चा नहीं है। वह तो खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ का सिद्धान्त है। व्यक्तिपूजा है जैन मत में। जीव शुद्ध होकर तीर्थंकर, बीत-राग हो जाता है और अलग-अलग उनकी उज्ज्वलता बनी रहती है, वहाँ भी सब ईश्वर है यह बात नहीं। जो पवित्र है वह ईश्वर-समान हो जाता है। उसकी इकाई बनी रहती है। बुद्ध में आत्मा का उच्छेद हो जाता है। ईश्वर की आराधना नहीं है। यह तो वैदिक धर्म ही ऐसा है, जिसमें सबके रूप में परमेश्वर प्रकट हैं। इसी से इस धर्म के बिना, इस विचार के बिना, इस दर्शन के बिना राग-द्वेष की आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो सकती। जीवन्मुक्ति का सुख नहीं हो सकता। यह विचार है, यह ज्ञान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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