गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 3
मत्तः परतरं नान्यत् किन्चिदस्ति धनन्जय। जिनका ईश्वर केवल निराकार है, तो जो कुछ हम देख रहे हैं वह उसके लिए ईश्वर नहीं है। तो मूर्ति-भन्जक हो गये, जो मन्दिर तोड़ते हैं वे मूर्ति तोड़ते हैं। हमारे एक मित्र रूस गये थे। उन्होंने बताया कि लेनिन की समाधि पर वे गये, तो एक मील की क्यू लगी थी और शान्त-चुपचाप। हाँ जी, ये वे हैं जो ईश्वर नहीं मानते। पर क़ब्र की पूजा करते हैं। ईसाई लोग ईश्वर का आकार नहीं मानते, परन्तु क़ब्र पर देखो तो दीया भी जल रहा है, फूल माला भी चढ़ रही है। जो ईश्वर की पूजा नहीं करेगा, उसे क़ब्र की पूजा करनी पड़ेगी! मकबरे की पूजा करनी पड़ेगी। हम मकबरे को बुरा नहीं मानते। वह भी ईश्वर है, लेकिन वे ईश्वर की मूर्ति नहीं मानते और भूत-प्रेत जिंद की पूजा करते हैं। अपनी बुद्धि में ईश्वर हो इसकी आवश्यकता है। अग्नि, मिट्टी, जल, वायु आकाश में ईश्वर की पूजा है। क्योंकि ये सब ईश्वर के रूप में है, ये ही ईश्वर की मूर्ति हैं। फिर सब अलग-अलग शक्ल क्यों हैं? मत्त: परतरं नान्यत् किन्चदस्ति धनन्जय। यह दुनिया की सृष्टि वस्त्र के समान है और सूत के समान है परमात्मा। जैसे सूत के विन्यास से ईश्वर में बेल-बूटे बनाये हैं-यह आदमी क्या हैं? ईश्वर में बेल-बूटा! यह स्त्री क्या है? ईश्वर में बेल-बूटा। तत्त्वतः ईश्वर है। यह मिट्टी क्या है? ये पेड़-पौधे क्या हैं? यह पानी क्या है? सूत्रे मणिगणा इव जैसे तिब्बती लोगों की माला होती है। जैसे सिक्खों की माला होती है, सूत में गाँठ लगा ली-एक, दो, तीन, चार-कितनी गाँठें हैं? परन्तु वे सब गाँठें सूत हैं। जैसे सोने की माला होती है, सोने की जंजीर होती है-मिट्टी की गोली होती है। गोलियाँ अलग-अलग हैं किन्तु मिट्टी एक है। इसी प्रकार यह सृष्टि कैसी है? जैसे सूत में गाँठ लगी हो, जैसे सोने में मन के बना दिये हों। ऐसे यह सारी सृष्टि है। मन ही अच्छा होता है मन ही बुरा होता है। मन ही मेरा होता है। मन ही तेरा होता है। जब ईश्वर की भक्ति आती है तो सब ईश्वर रूप से अनुभव में आता है! अब आगे बतायेंगे कि कहाँ कैसे ईश्वर स्थित है। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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