गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 2
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। कहते हैं, देखो परमात्मा की प्राप्ति तो एक सरीखी है, लेकिन जो देह में बैठे हुए लोग हैं देहाभिमानी-जो इस देह को ही मैं मानकर बैठे हुए हैं, वे लोग जब बिना देह के परमात्मा के बारे में विचार करेंगे-तुम देह वाले हो, तुम्हारा ईश्वर भी देहवाला है-और यदि तुमने अन्नमय, प्राणमय, विज्ञानमय, मनोमय, आनन्दमय कोश का विवेक करके अपने को साक्षी-द्रष्टा के रूप में जान लिया है तो तुम अपने को ब्रह्मरूप में जान सकते हो। साकार जीव के लिए साकार भगवान और निराकार आत्मा के लिए निराकार ब्रह्म। तो हम तो रहें साकार और मिलना चाहें निराकार से तो कैसी तो हुई, जैसे कोई दोनों हाथ फैलाकर आसमान को समेटना चाहे तो हाथ और हाथ वाला तो हो गया साकार और आसमान है निराकार, उसको वह समेटना चाहता है तो अपने को हाथ वाला भी माने और उसमें आकाश को भी समेटना चाहे तो यह कितनी उल्टी बात हो जायेगी। इसलिए अपने को देह मानते हुए, निर्देह परमात्मा को, अदेह परमात्मा को कोई पाना चाहेगा तो-‘क्लेशोधिकतरस्तेषां’- अधिक से कुछ ज्यादा क्लेश होगा। उसको इससे बड़ा तो और कोई क्लेश ही नहीं होगा। नहीं, जो अधिकतम क्लेश है वह नहीं होगा। न अधिकतम क्लेश होगा और न अधिक होगा। अधिक से कुछ ज्यादा तो होगा, लेकिन कोई अन्तिम सीमा का क्लेश नहीं होगा। क्योंकि उन्होंने व्यक्त होकर अव्यक्तों से आसक्ति की। जैसे आसमान में चिड़िया उड़ती हैं और उसके पदचिह्न को कोई पकड़ना चाहे तो मुश्किल है। लेकिन यदि आकाश ही हो तो यह अव्यक्त की गति है-वह देहाभिमानी के लिए बहुत कठिन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12.5
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