गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 7
आप लोग मन एकाग्र करने की बात करते हैं। एक युक्ति उसके लिए भी सुनिये। आप केवल अपने नेत्र की पुतली को हिलने न दीजिये। ज़ोर मत लगाइये। आपकी पुतली जहाँ है वहीं रहने दीजिये। ऊपर-नीचे दाहिने-बायें कहीं भी जाने मत दीजिये। अभी-अभी ऐसा करके देख सकते हैं कि आपका मन कितना एकाग्र हो गया है। यह प्रामाणिक वाक्य है, जिसमें कहा गया है कि- ‘आप अपनी आँख की पुतली को स्तब्ध कर लीजिये, समाधि आपके हृदय में निवास करने लगेगी।’ अब आइये पुनः कामक्रोध की ओर, यह देखिये कि काम का रूप क्या है? क्या शक्ल-सूरत देखकर हम काम को पहचान जायेंगे? नहीं, जो तुम चाहते हो वही उसका रूप है। हम तो निष्काम होना चाहते हैं। बस-बस, कामना के रूप बदल लिय है, निष्काम होने की इच्छा के रूप में। तुम्हारे हृदय में अपना स्थान बना लिया है। जिस प्रकार कामरूप राक्षस जब चाहे जैसा रूप बना लेते हैं उसी प्रकार काम भी नाना रूप ग्रहण करता रहता है। यहाँ तक कि जब हम कहते हैं- हे काम! तुम जाओ, तब इस इच्छा के रूप में भी वह तुम्हारे साथ सट जाता है। वह ऐसी आग है जो कभी बुझती नहीं, कभी पूरी होती नहीं, दुष्पूरेणानलेन च। आओ इसके क़िले पर आक्रमण करें। इसका क़िला भी बहुत विचित्र है। उसका निवास तो हमारे इन्द्रियों में है, मन में है, बुद्धि में है- इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।[1] एक राजा किसी दूसरे राजा पर आक्रमण करने के लिए चला तो सामने वाले राजा ने उसके सारथि से मित्रता जोड़ ली। वह जिस रथ पर जा रहा था उसका सारथि विपक्षी राजा का आदमी हो गया। उसकी बागडोर कमज़ोर और पकड़ ढीली हो गयी। घोड़े भी खूब खा-पीकर दुश्मन के वश में हो गये। अब राजा क्या करे। उसका दुश्मन घोड़ों के रूप में और कमज़ोर बागडोर के रूप में उसके रथ में ही सम्मिलित हो गया। ऐसा शत्रु अगर आपके पीछे लग जाये तो आप क्या करेंगे? आपकी इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन बागडोर है और बुद्धि सारथि है। जब आपके जीवन-रथ का सारथि, घोड़े, बागडोर, ये तीनों दुश्मन के हाथ में चले जायें तो आप अपनी अभीष्ट यात्रा कैसे पूरी करेंगे? इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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