गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 5
अर्जुन को मृत्यु का भी दर्शन हो रहा है। यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाः विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। अर्जुन ने कहा-जैसे जलता हुआ दीपक और बहुत प्यार करके पतंगा उस पर टूटता है कि हमारा बहुत प्रिय है। मोहित हो जाता है, ऐसी मान्यता है। अब वह क्या सोचकर गिरता है यह तो उसने किसी को बताया नहीं। सम्भावना ही तो है न! अब वह उसको बुझाने के लिए दौड़ता है या स्वयं मरने के लिए दौड़ता है- पर पतंग जलते हुए दीपक पर, जलती हुई आग पर जाकर गिर पड़ता है। किसलिए गिरता है। अपने नाश का हेतु स्वयं बनता है। वैसे एक बात आपके ध्यान में ला दें। संस्कृत भाषा में किसी वस्तु की नवीन उत्पत्ति नहीं मानी जाती है। उत्पत्ति शब्द का अर्थ है कि जो चीज नीचे दबी थी वह उत् माने ऊपर पत्ति माने पत्तन-जो छिपी हुई चीज थी वह जाहिर हो गयी। इसका नाम उत्पत्ति होता है यानी प्रादुर्भाव है-जा चीज छिपी ती, उसका प्रकट होना इसका नाम जन्म है। और नाश शब्द का अर्थ अत्यन्त अभाव नहीं होता। भाषा में ये शब्द जान-बूझकर रखे हुए-‘नश अदर्शने’ जो चीज अब तक दीख रही थी वह अब नहीं दीख रही है। न दीखने का ही नाम नाश हो गया-और दीखने लगने का नाम हो गया उत्पत्ति। दुनिया को भूल जाने का नाम मृत्यु है और शरीर को मैं मानने का नाम जन्म हुआ। उत्पत्ति और विनाश का जैसा अर्थ साधारण लोगों में समझा जाता है वह तो संस्कृत भाषा में है ही नहीं संस्कृत भाषा का अर्थ भी यह नहीं है कि कोई नया शब्द किसी ने गढ़ दिया। उसका भी अर्थ है-पहले से जो धातु है, जो प्रत्यय है उसका संस्कार करके शब्द केा निकाल लिया-भू धातु है चाहे भव चाहे भव्य कहो- चाहे भविष्यमाण कहो चाहे बोभूयमान कहो- अनेक प्रक्रियाएँ हैं उसकी। भवन कहो भवानि कहो। धातु पहले से रहती है; प्रत्यय माने अपने मन की वृत्ति जोड़-जोड़ करके हम एक वस्तु में-से जैसे शब्द निकालते हैं। एक पत्थर है, उसमें-से लोढ़ा भी निकाल सकते हैं, ऊखल भी निकाल सकते हैं और राम-कृष्ण की मूर्ति भी निकाल सकते हैं और शालग्राम की शिला भी निकाल सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.29
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