गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 5
पर यह मनुष्य इतना व्यस्त है-जैसे यह अपने लिए हो ही नहीं। स्त्री के लिए है, पुत्र के लिए है, परिवार के लिए है, शत्रु के लिए है, मित्र के लिए है-अरे बाबा-सबके लिए तुम हो तो अपने लिए भी तो हो न? अपने को खोकर तो सबके लिए नहीं हो! विश्वरूप का रहस्य यही है कि जो कुछ हुआ, हो रहा है, होगा सब भगवान के शरीर में है। उसमें अच्छा करके ललचने की जरूरत नहीं है और बुरा कहकर घृणा करने की आवश्यकता नहीं है। आपने कभी ध्यान दिया होगा कि आपके शरीर में पाँव के नाखून से लेकर और सिर के बाल तक जो कुछ बाहर निकलता है वह सब गन्दा होता है। कोई चीज ऐसी बताओ-बाल निकलें तो गन्दे-लगे हैं-जब काट लोगे तो क्या हो जायगा? नाखून हैं, कान में खोंट है, आँख में कीचड़ है, नाक में बलगम है। मुँह में थूँक है। खून है, हड्डी है-गन्दगी का पिटारा कौन है? जहाँ शरीर का सम्बन्ध नहीं होगा वहाँ गन्दगी होगी ही नहीं। अपवित्रता होती वहाँ है जहाँ किसी प्राणी के शरीर से निकली हुई वस्तु का सम्बन्ध होता है। चाहे पशु का हो, चाहे पक्षी का हो, पर हम ‘मैं मैं’ करके छाती तानकर चलते हैं। ऐसा मालूम होता है, जैसे परमेश्वर को मात देने के लिए चल रहे हैं। इस शरीर पर इतनी शान तो जरा विश्वरूप को देखो तो मालूम पड़ेगा कि अपना मन जो है उसे उद्विग्न, व्यग्र करने का कोई काम नहीं है। सहज भाव से चलना होगा। सबसे भयंकर हमको इस दुनिया में मृत्यु दीखती है। महात्मा लोग मृत्यु का मधुर बना लेते हैं। जब हम मृत्यु को अभीष्ट बना लेते हैं, उस समय अभीष्ट हो जाता है। बुद्धिपूर्वक सोच विचारकर-जैसे विनोबा जी ने अपने शरीर का त्याग किया-मृत्यु अभीष्ट हो गयी। जैसे पहले तीन दिन उपवास करते हैं, सात दिन करते हैं, ग्यारह दिन करते हैं, मासव्यापी चान्द्रायण करते हैं। फिर पुण्यद क्षेत्र में गंगा - यमुना के तट पर अपने शरीर का परित्याग करते हैं। या योग में स्थित होकर करते हैं- वहाँ मृत्यु भी मधुर हो जाती है। आप सोते हैं तब भी सब छूटता है और मरते हैं तब भी सब छूटता है। पर सोते समय आशा रहती है-कल जगेंगे तो यह दुनिया मिलेगी और मरते समय अपनी बनायी हुई दुनिया छूटने के डर से हम थरथर कांपने लगते हैं। अवस्था में कोई भेद नहीं है। विस्मृति तो दोनों में ही होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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