गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 1
इस बात को आप शास्त्र की इस भाषा के अनुसार मिला लीजिये कि मुक्ति किसे होती है यह धर्मशास्त्र में है। एक तो जो योगी अथवा संन्यासी होता है, उसकी मुक्ति होती है। दूसरे जो युद्ध भूमि में छाती तान कर खड़ा हो जाता है- रणे चाभिमुखे हतः और शत्रु के आक्रमण का सामना करते हुए मरता है वह भी मुक्त होता है। क्योंकि वह अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है। कर्तव्य का पालन करते हुए मरना- मुक्ति का साधन है। अब बोले कि कर्म करने वाला संन्यासी कैसे हुआ? उसने पत्नी आदि का परित्याग किया नहीं तो बताते हैं - अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। मैं आपके काम की एक बात सुनाता हूँ। पहले दर्शनशास्त्र की बात कुछ अधिक आ गयी। आप काम करते हैं, किसी को एक गिलास पानी पिलाते हैं, बहुत बढ़िया है। कभी झाडू लगाते हैं कभी रसोई बनाते हैं आप कपड़ा बनाते हैं, लोहा बनाते हैं, अन्न पैदा करते हैं , दूसरों की भलाई के काम करते हैं। अभावग्रस्तों को निवान-स्थान देने, भोजन देने, औषधि देने, वस्त्र देने, सत्संग देने आदि से भी तो बुद्धि शुद्ध होती है। दूसरों को मनोरंजन देना, अन्न देना जीवन देना, ज्ञान–चित्त देना, आनन्द देना– ये सब बुद्धि शुद्धि करने के साधन हैं। आप अच्छे काम करते हैं, बहुति बढ़िया बात है किन्तु एक बात पर ध्यान दीजिये। जब तक आपको आनन्द देने का कुछ फल नहीं मिलता, तब तक आपने को सफल नहीं मानते, कृतकृत्य नहीं मानते। आप तो काम करने का फल चाहते हैं। जनसेवी हैं तो कुर्सी चाहते हैं, और कुछ नहीं तो आपकी प्रशंसा पत्र-पत्रिकाओं में छपे, यह चाहते हैं, यश चाहते हैं, कीर्ति चाहते हैं। अधिक नहीं तो कोई शाबाशी दे, तारीफ़ करे, माला ही पहनने को मिल जाये। तात्पर्य यह कि जब तक कुछ लौकिक फल हमारे काम का न मिले, तब तक हम अपने कर्म को सफल नहीं समझते किन्तु ऐसा करके हम अपने कर्म की क़ीमत को खो देते हैं। प्यासे को पानी पिलाना, भूखे को अन्न देना नंगे को वस्त्र देना ये स्वयं में बहुत बढ़िया काम है। उनसे आपके हृदय में आनन्द आना चाहिए, पवित्रता आनी चाहिए, अन्तःसुख का विकास होना चाहिए। यह ध्यान रहे कि विकास स्वाधीन सुख का हो, परधीन सुख का नहीं। जो सुख माला पहनने पर, तारीफ़ सुनने पर, ऊँची कुर्सी मिलने पर; सेवा के बदले पैसा मिलने पर धरती पर मिलने पर मिलता है, वह स्वाधीन सुख नहीं। किसी फरिश्ते ने आकर कहा अब तुमको वह स्वर्ग मिलेगा और आप सुखी हो गये। किन्तु मिलने की बात सुनकर जो सुख मिलता है, वह सच्चा सुख नहीं। सच्चा सुख तो वह है कि जो कर्म आप करते हैं, उस कर्म में आपको सुख मिले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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