गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 1
तो संन्यासी कौन है? वह है जो बाद में मिलने वाले फल का आश्रय न ले- अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। हम यह नहीं कहते कि आपको कर्म फल न मिले। खूब मिले। परन्तु आप उसके आश्रित न हो जायँ। अन्यथा कभी शंका हो जायेगी कि फल नहीं मिलेगा तो क्या मिलेगा ? विपरीत फल मिलेगा तो क्या होगा ? होना यह चाहिए कि आपका जो सत्कर्म है, वह बना रहे, नष्ट न हो जाये। फल न मिलने पर भी आपको यह संन्तोष रहे कि आपने अच्छा काम किया है। आपको ग्लानि न हो, आपका दिल मैला न हो। आप यह देखिये कि जिस क्षण में कर्म कर रहे हैं, उस क्षण में आपको पूर्णता का अनुभव हो रहा है कि नहीं? ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम। यह ब्रह्म कर्म-समाधि है। जो काम आप कर रहे हैं वह काम आपके अपने व्यक्तित्व; आपकी अपनी शक्ति, अवस्था, बुद्धि और आपके ज्ञान के अनुरूप होना चाहिए और उसके आपको पूर्णता का अनुभव करना चाहिए। आप कर्मफल पर मत जाइये। उसकी चिन्ता से तो आपका पाँव फिसल गया क्योंकि आप जो कर्म कर रहे हैं, उस कर्म की और नहीं देख रहे अपितु उससे आगे होने वाले फल के आश्रित हो गये हैं। यदि आप अच्छा काम कर रहे हैं तो अच्छा काम करना स्वयं में फल है। अच्छा काम करना सत् है। अच्छा काम करना ज्ञान है और अच्छा काम आनन्द है। अच्छा काम करना सच्चिदानन्द है। जो फल का आश्रय लिये बिना कर्म करता है वह संन्यासी है और कर्ता भी है। वह पत्नी त्यागी भी नहीं और कर्मत्यागी भी नहीं। किन्तु गृहस्थाश्रम में रहता हुआ अपनी शक्ति, अपनी बुद्धि, अपनी सद्भावना, अपने ज्ञान के अनुसार कर्म करता हुआ पूर्ण है। जो स्वयं में आनन्द का अनुभव करता हुआ कर्म करेगा, उसके फल में भी आनन्द-ही-आनन्द रहेगा। उसे फल की ओर देखने की कोई जरूरत नहीं। आनन्द का फल आनन्द है। जो अपने कर्म का सुख नहीं ले रहा अपने ज्ञान की पवित्रता का अनुभव कर रहा , अपने सद्भाव को नहीं देख रहा, वह चाहे गेरुआ कपड़े वाला संन्यासी हो अथवा योगी हो, उसका का काम अधूरा हो जाता है। यह गृहस्थाचार है। श्रीकृष्ण भगवान गृहस्थचार्य हैं और गृहस्थों को काम करने की तरक़ीब बताते हैं कि कैसे काम करना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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