गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 10
मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। बृहदारण्यक उपनिषद् में बीस-पचीस पदार्थों का नाम लेकर यह बात बतायी है कि पृथ्वी मधु है, जल मधु है, अग्नि मधु है, वायु मधु है, आकाश मधु है, मन मधु है, बुद्धि मधु है, सम्पूर्ण प्राणी मधु हैं। रात मधु है और प्रातःकाल मधु है। सम्पूर्ण भूतों का आत्मा मधु है और गौ मधु है। तात्पर्य यह कि सर्वत्र मधु-ही-मधु आनन्द-ही-आनन्द है। हमारी वनस्पतियाँ मधुमयी हैं, हमारी इन्द्रियाँ मधुमयी हैं। विषय मधुमय हैं, आत्मा मधुमय है- ‘एष ते आत्मा अन्तर्यामी अमृतः।’ अरे, यहाँ दिल बिगाड़ने की तो कोई जगह ही नहीं। अपने सुख को स्त्रोत भीतर से फूटने दो, बाहर से गड्ढों में-से पानी भरने की जरूरत नहीं। एक साधारण बात आपको सुनाता हूँ। हम लोग गाँव के रहने वाले हैं। वहाँ सिंचाई आदि के लिए कुँओं से पानी खींचते हैं। परन्तु कुएँ की एक विशेषता है कि जितना पानी उसमें से निकालो उतना ही पानी भीतर से और आ जाता है। तो आपका यह हृदय भी सुख का कूप है। आप इससे सुख निकालकर जितना बाहर फेंकोगे, जितना ही दूसरों को सींचोगे, जितना ही बाहर वालों की प्यास बुझाओगे, उतना ही सुख का झरना आपके भीतर बहेगा, उतना ही सुख-स्वरूप परमेश्वर का अखण्ड प्रवाह आपके भीतर प्रवाहित होगा। योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्त र्ज्यतिरेव यः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज