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− | <poem style="text-align:center;">'''प्रेष्ठो | + | अब '''आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः''' को लीजिये। इसमें जो बन्धु शब्द है, वह बड़ा है, वह बड़ा ही प्यारा है। बंगला भाषा में '''बन्धु''' शब्द का प्रयोग बड़े प्रेम से करते हैं। प्रियतम के लिए बन्धु शब्द का प्रयोग होता है। [[रासलीला]] में [[गोपी|गोपियों]] ने [[श्रीकृष्ण]] के लिए एक बार बन्धु शब्द का प्रयोग किया- |
− | बन्धु शब्द का अर्थ भाई नहीं, आत्मा है। अपना आत्मा ही बन्धु है, हितकारी है, सुहृद् है, परम प्रियतम है और अपना आत्मा ही शत्रु है। अपने को सुख कौन देता है? अपना आत्मा। अपने को दुःख कौन देता है? अपना आत्मा। जो सतावे सो शत्रु- ‘सातनात् शत्रुः’ संस्कृत में शासन शब्द है और जो प्रेम से | + | <poem style="text-align:center;">'''प्रेष्ठो भलांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा'''</poem> |
+ | बन्धु शब्द का अर्थ [[भाई]] नहीं, [[आत्मा]] है। अपना आत्मा ही बन्धु है, हितकारी है, सुहृद् है, परम प्रियतम है और अपना आत्मा ही शत्रु है। अपने को सुख कौन देता है? अपना आत्मा। अपने को दुःख कौन देता है? अपना आत्मा। जो सतावे सो शत्रु- ‘सातनात् शत्रुः’ संस्कृत में शासन शब्द है और जो प्रेम से बाँध ले, उसका नाम बन्धु- ‘बध्नाति इति बन्धुः’। जो इतना प्रेम करे , इतनी सेवा करे कि विरक्त को रागी बना ले और पराये को अपना बना ले, उसको बोलते हैं बन्धु। तो भगवान ने सूत्र रूप से इसकी व्याख्या कर दी कि कौन आत्मा अपना बन्धु है, हितकारी है बन्धु और कौन [[आत्मा]] अपना शत्रु है। | ||
− | अब ज्ञान को भी कुछ मिश्रण चाहिए। ज्ञान जहाँ भव-रोग का नाश करने के लिए विष है, वही | + | अब [[ज्ञान]] को भी कुछ मिश्रण चाहिए। ज्ञान जहाँ भव-रोग का नाश करने के लिए विष है, वही योगवाही भी है। ज्ञान योग के साथ मिल गया तो समाधि लग गयी, [[भक्ति]] के साथ मिल गया तो वासना मिट गयी और [[धर्म]] के साथ मिल गया तो दुश्चरित्रता दूर हो गयी। ज्ञान सबका सहायक भी है और स्वयं में महान् महान प्रज्वलित [[अग्नि]] भी है। यदि आपने अपने जीवन को संयम में नहीं रखा, स्वच्छन्द बना लिया ज्ञान दग्ध कर देगा। इसलिये उसको उसको बुद्धियोग चाहिए- |
<poem style="text-align:center;">'''बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।'''</poem> | <poem style="text-align:center;">'''बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।'''</poem> | ||
यदि आप बुद्धि से चलेंगे तो पाप-पुण्य नहीं लगेगा। राग-द्वेष नहीं होगा, सुख-दुःख नहीं होगा और नरक-स्वर्ग नहीं मिलेगा। यदि आप बुद्धि से चलेंगे तो इसी जीवन में जीवन्मुक्त होकर रहेगे। | यदि आप बुद्धि से चलेंगे तो पाप-पुण्य नहीं लगेगा। राग-द्वेष नहीं होगा, सुख-दुःख नहीं होगा और नरक-स्वर्ग नहीं मिलेगा। यदि आप बुद्धि से चलेंगे तो इसी जीवन में जीवन्मुक्त होकर रहेगे। | ||
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− | ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु जितात्मनः, मानापमानयोः प्रशान्तस्य, परमात्मा समाहितः।’ परमात्मा आपके पास है। परमात्मा केवल सत्ययुग में मिलता है- इस प्रकार परमत्मा को समय बाँधना अज्ञान है। परमात्मा केवल वैकुण्ठ में मिलता है- इस प्रकार स्थान विशेष में परमात्मा को बाँध देना अज्ञान है और परमात्मा अमुक रूप में ही मिलता है- इस प्रकार किसी | + | ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु जितात्मनः, मानापमानयोः प्रशान्तस्य, परमात्मा समाहितः।’ परमात्मा आपके पास है। परमात्मा केवल सत्ययुग में मिलता है- इस प्रकार परमत्मा को समय बाँधना अज्ञान है। परमात्मा केवल वैकुण्ठ में मिलता है- इस प्रकार स्थान विशेष में परमात्मा को बाँध देना अज्ञान है और परमात्मा अमुक रूप में ही मिलता है- इस प्रकार किसी आकार में परमात्मा को बाँध देना भी अज्ञान है। परमात्मा तो हर जगह मिलता है, हर समय मिलता है और हर रूप में मिलता है। |
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15:44, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 4
अब आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः को लीजिये। इसमें जो बन्धु शब्द है, वह बड़ा है, वह बड़ा ही प्यारा है। बंगला भाषा में बन्धु शब्द का प्रयोग बड़े प्रेम से करते हैं। प्रियतम के लिए बन्धु शब्द का प्रयोग होता है। रासलीला में गोपियों ने श्रीकृष्ण के लिए एक बार बन्धु शब्द का प्रयोग किया- प्रेष्ठो भलांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा बन्धु शब्द का अर्थ भाई नहीं, आत्मा है। अपना आत्मा ही बन्धु है, हितकारी है, सुहृद् है, परम प्रियतम है और अपना आत्मा ही शत्रु है। अपने को सुख कौन देता है? अपना आत्मा। अपने को दुःख कौन देता है? अपना आत्मा। जो सतावे सो शत्रु- ‘सातनात् शत्रुः’ संस्कृत में शासन शब्द है और जो प्रेम से बाँध ले, उसका नाम बन्धु- ‘बध्नाति इति बन्धुः’। जो इतना प्रेम करे , इतनी सेवा करे कि विरक्त को रागी बना ले और पराये को अपना बना ले, उसको बोलते हैं बन्धु। तो भगवान ने सूत्र रूप से इसकी व्याख्या कर दी कि कौन आत्मा अपना बन्धु है, हितकारी है बन्धु और कौन आत्मा अपना शत्रु है। अब ज्ञान को भी कुछ मिश्रण चाहिए। ज्ञान जहाँ भव-रोग का नाश करने के लिए विष है, वही योगवाही भी है। ज्ञान योग के साथ मिल गया तो समाधि लग गयी, भक्ति के साथ मिल गया तो वासना मिट गयी और धर्म के साथ मिल गया तो दुश्चरित्रता दूर हो गयी। ज्ञान सबका सहायक भी है और स्वयं में महान् महान प्रज्वलित अग्नि भी है। यदि आपने अपने जीवन को संयम में नहीं रखा, स्वच्छन्द बना लिया ज्ञान दग्ध कर देगा। इसलिये उसको उसको बुद्धियोग चाहिए- बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव। यदि आप बुद्धि से चलेंगे तो पाप-पुण्य नहीं लगेगा। राग-द्वेष नहीं होगा, सुख-दुःख नहीं होगा और नरक-स्वर्ग नहीं मिलेगा। यदि आप बुद्धि से चलेंगे तो इसी जीवन में जीवन्मुक्त होकर रहेगे।
‘शीतोष्णसुखदुःखेषु जितात्मनः, मानापमानयोः प्रशान्तस्य, परमात्मा समाहितः।’ परमात्मा आपके पास है। परमात्मा केवल सत्ययुग में मिलता है- इस प्रकार परमत्मा को समय बाँधना अज्ञान है। परमात्मा केवल वैकुण्ठ में मिलता है- इस प्रकार स्थान विशेष में परमात्मा को बाँध देना अज्ञान है और परमात्मा अमुक रूप में ही मिलता है- इस प्रकार किसी आकार में परमात्मा को बाँध देना भी अज्ञान है। परमात्मा तो हर जगह मिलता है, हर समय मिलता है और हर रूप में मिलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.7
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