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− | मैं आपको एक बात और बड़े प्रमाणिक | + | मैं आपको एक बात और बड़े प्रमाणिक रूप से सुना देता हूँ। आज से लगभग दो सौ [[वर्ष]] पहले निर्मित कालिका पुराण और मुरुतन्त्र को छोड़कर किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में [[वेद]] में, ब्राह्मण में, उपनिषद् में, श्रौत सूत्र में, कल्पसूत्र में, धर्म सूत्र में, गृह्यसूत्र में, स्मृति में, अठ्ठारहों पुराणो में, प्राचीन तन्त्र मे हिन्दू शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं हुआ। हम एक जाति के लिए, एक आचार्य के अनुयायियों के लिए, भूगोल के एक सीमित क्षेत्र के लिए धर्म का निरूपण नहीं करते। हमारा जो [[धर्म]] है, वह समग्र मनुष्य मात्र के लिए है। हमारा धर्म शब्द निरुपपद है, उसका उपपद नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म शब्द से पहले उसको संकीर्ण बनाने लिए किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ। जैसे- |
<poem style="text-align:center;">'''यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः। चोदनालक्षणार्थो धर्मः धारणात् धर्मः।'''</poem> | <poem style="text-align:center;">'''यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः। चोदनालक्षणार्थो धर्मः धारणात् धर्मः।'''</poem> | ||
− | आज मैंने भारतीय | + | आज मैंने भारतीय संस्कृति की विशेषता के बारे में चार बातें बतायीं। हमारा धर्म जाति का धर्म नहीं, व्यक्ति का धर्म नहीं, राष्ट्र का धर्म नहीं, समग्र [[पृथ्वी]] का धर्म है। '''माता पृथ्वी पुत्रोऽहम् पृथिव्या''' पृथ्वी मेरी [[माता]] है, मैं पृथ्वी का [[पुत्र]] हूँ जो [[ईश्वर]] को मानते हैं, वे ईश्वर को एक मानते हैं। यह ‘एक’ शब्द भी अपनी एक अपूर्वता लेकर संस्कृत भाषा भाषा में बना है। '''इण् गतौ, एति अन्वेति, अनुगच्छति एति एकः।''' जो दो में जाता है, तीन में जाता है, चार में जाता है; जिसके रहे बिना, जिसकी रहे बिना, जिसकी अनुगति के बिना संख्या बनती ही नहीं, उनका नाम एक है। अब इस बात को ईश्वर में लीजिए। ईश्वर एक है। ईश्वर दो में है, एक एक दो। ईश्वर तीन में है- एक-एक-एक तीन। ईश्वर के बिना कोई वस्तु ही नहीं। |
− | तो भाई, गीता के पाँचवें अध्याय के अन्त में आपने सुना कि मुक्त कौन है? ''' | + | तो भाई, [[गीता]] के पाँचवें अध्याय के अन्त में आपने सुना कि मुक्त कौन है? '''विगतेच्छाभयक्रोधो: यः सदा मुक्त एव सः-''' यह मुक्त की परिभाषा है। आप एक बात पर केवल ध्यान दें। मरने के बाद [[स्वर्ग]] मिलेगा, बहिश्त मिलेगा अथवा यह मिलेगा, वह मिलेगा, इसका महत्त्व नहीं। आपके लिए इसी जीवन में फायदे की बात है विगतेच्छा- भय-क्रोध होना रागद्वेष- भयरहित होना। क्रोध में द्वेष है। भय का नाम सीधा-सादा है। जो इच्छावान होगा, वह उसकी इच्छा करेगा जिससे उसका राग होगा। जिसके मन में किसी से राग नहीं, किसी के प्रति द्वेष नहीं, क्रोध नहीं और भय नहीं, वह सदा मुक्त है, इसी जीवन में मुक्त है। मरने के बाद की [[मुक्ति]] सही है, परन्तु यह भी सही है कि जो इस जीवन में मुक्त है, वही बाद के जीवन में मुक्त है। जो इस जीवन में बँधा हुआ है, वह अगले जीवन में भी बँध रहेगा। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 341]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 341]] | ||
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15:07, 22 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 1 मैं आपको एक बात और बड़े प्रमाणिक रूप से सुना देता हूँ। आज से लगभग दो सौ वर्ष पहले निर्मित कालिका पुराण और मुरुतन्त्र को छोड़कर किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में वेद में, ब्राह्मण में, उपनिषद् में, श्रौत सूत्र में, कल्पसूत्र में, धर्म सूत्र में, गृह्यसूत्र में, स्मृति में, अठ्ठारहों पुराणो में, प्राचीन तन्त्र मे हिन्दू शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं हुआ। हम एक जाति के लिए, एक आचार्य के अनुयायियों के लिए, भूगोल के एक सीमित क्षेत्र के लिए धर्म का निरूपण नहीं करते। हमारा जो धर्म है, वह समग्र मनुष्य मात्र के लिए है। हमारा धर्म शब्द निरुपपद है, उसका उपपद नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म शब्द से पहले उसको संकीर्ण बनाने लिए किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ। जैसे- यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः। चोदनालक्षणार्थो धर्मः धारणात् धर्मः। आज मैंने भारतीय संस्कृति की विशेषता के बारे में चार बातें बतायीं। हमारा धर्म जाति का धर्म नहीं, व्यक्ति का धर्म नहीं, राष्ट्र का धर्म नहीं, समग्र पृथ्वी का धर्म है। माता पृथ्वी पुत्रोऽहम् पृथिव्या पृथ्वी मेरी माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ जो ईश्वर को मानते हैं, वे ईश्वर को एक मानते हैं। यह ‘एक’ शब्द भी अपनी एक अपूर्वता लेकर संस्कृत भाषा भाषा में बना है। इण् गतौ, एति अन्वेति, अनुगच्छति एति एकः। जो दो में जाता है, तीन में जाता है, चार में जाता है; जिसके रहे बिना, जिसकी रहे बिना, जिसकी अनुगति के बिना संख्या बनती ही नहीं, उनका नाम एक है। अब इस बात को ईश्वर में लीजिए। ईश्वर एक है। ईश्वर दो में है, एक एक दो। ईश्वर तीन में है- एक-एक-एक तीन। ईश्वर के बिना कोई वस्तु ही नहीं। तो भाई, गीता के पाँचवें अध्याय के अन्त में आपने सुना कि मुक्त कौन है? विगतेच्छाभयक्रोधो: यः सदा मुक्त एव सः- यह मुक्त की परिभाषा है। आप एक बात पर केवल ध्यान दें। मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा, बहिश्त मिलेगा अथवा यह मिलेगा, वह मिलेगा, इसका महत्त्व नहीं। आपके लिए इसी जीवन में फायदे की बात है विगतेच्छा- भय-क्रोध होना रागद्वेष- भयरहित होना। क्रोध में द्वेष है। भय का नाम सीधा-सादा है। जो इच्छावान होगा, वह उसकी इच्छा करेगा जिससे उसका राग होगा। जिसके मन में किसी से राग नहीं, किसी के प्रति द्वेष नहीं, क्रोध नहीं और भय नहीं, वह सदा मुक्त है, इसी जीवन में मुक्त है। मरने के बाद की मुक्ति सही है, परन्तु यह भी सही है कि जो इस जीवन में मुक्त है, वही बाद के जीवन में मुक्त है। जो इस जीवन में बँधा हुआ है, वह अगले जीवन में भी बँध रहेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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