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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 11'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 11'''</div> | ||
− | सबका आत्मा अपना आत्मा है और अपना आत्मा सबका आत्मा है। अपना अहित करोगे तो सबका अहित अवश्यम्भावी है। ‘सर्वभूतहिते रताः’ का अर्थ है स्वसहित संसार के सभी प्राणियों के हित में तत्पर रहो तब परमसुख शान्ति की प्राप्ति होगी। यदि कहो कि सबके हित में कैसे लगें तो उसका उपाय बताया-यतत्मानः। अपनी इन्द्रियों, अपने मन को नियन्त्रण में, काबू में रखो। इन्द्रियों, मन को काबू में रखने का मतलब उनको मारना नहीं। यदि इनको मारना ही इष्ट होता तो ये आपको दिये ही न जाते। इन्द्रिय और मन मारने के लिए नहीं, काम लेने के लिए हैं। इनसे काम तभी ठीक लिया जाता है, जब ये | + | सबका [[आत्मा]] अपना आत्मा है और अपना आत्मा सबका आत्मा है। अपना अहित करोगे तो सबका अहित अवश्यम्भावी है। ‘सर्वभूतहिते रताः’ का अर्थ है स्वसहित संसार के सभी प्राणियों के हित में तत्पर रहो तब परमसुख [[शान्ति]] की प्राप्ति होगी। यदि कहो कि सबके हित में कैसे लगें तो उसका उपाय बताया- यतत्मानः। अपनी इन्द्रियों, अपने मन को नियन्त्रण में, काबू में रखो। इन्द्रियों, मन को काबू में रखने का मतलब उनको मारना नहीं। यदि इनको मारना ही इष्ट होता तो ये आपको दिये ही न जाते। इन्द्रिय और मन मारने के लिए नहीं, काम लेने के लिए हैं। इनसे काम तभी ठीक लिया जाता है, जब ये क़ाबू में रहें, नियन्त्रण में रहें, जैसा कि पहले भी कहा ‘यतात्मानः’ का अर्थ है कि जब हम चाहें न बोलें तो वाणी न निकले। इस प्रकार के नियन्त्रण के लिए व्यवस्था की, मर्यादा की, प्रबन्ध की आवश्यकता है। |
− | यह नहीं कि जीभ बोलने लगी तो घड़ी आगे बढ़ गयी। घड़ी ने समय का उल्लंघन कर दिया और जीभ बोलती रह गयी। जैसे घड़ी की | + | यह नहीं कि जीभ बोलने लगी तो घड़ी आगे बढ़ गयी। घड़ी ने समय का उल्लंघन कर दिया और जीभ बोलती रह गयी। जैसे घड़ी की सुई व्यवस्थित रूप से चलती है वैसे ही जीभ भी व्यवस्थित रूप से हिले, पाँव भी व्यवस्थित रूप से चलें और हाथ भी व्यवस्थित रूप से काम करें। जब हम काम करना चाहें तभी काम हो और जब बन्द करना चाहें तभी बन्द हो। इस प्रकार मत दौड़ो कि जब रुकने का समय आवे तो रुक ही न सको। तुम्हारी मोटर इतनी तेज नहीं चलनी चाहिए कि क़ाबू से बाहर हो जाये। उसे जहाँ रोकना है वहाँ वह रुक जानी चाहिए। तो ‘यतात्मानः’ का तात्पर्य है कि हमारा मन, हमारी इन्द्रियाँ हमारे अधीन हों। जो बोलना उचित हो वही हम बोलें। |
− | जो करना उचित हो वही करें। जहाँ जाना चाहिए वहाँ जायें। किसी भी अनुचित दिशा की ओर हमारा मन, इन्द्रिय और बुद्धि न ले जायें, हम ‘यतात्मानः’ होने पर ही सबका भला कर सकते हैं और ‘सर्वभूतहिते रताः’ वही हो सकते हैं जो अपने को | + | जो करना उचित हो वही करें। जहाँ जाना चाहिए वहाँ जायें। किसी भी अनुचित दिशा की ओर हमारा मन, इन्द्रिय और बुद्धि न ले जायें, हम ‘यतात्मानः’ होने पर ही सबका भला कर सकते हैं और ‘सर्वभूतहिते रताः’ वही हो सकते हैं जो अपने को क़ाबू में, नियन्त्रित और मर्यादित रखते हैं। अच्छा जी [[कर्म]] में कोई दोष न रहे- यह तो हुआ ‘सर्वभूतहिते रताः’ और मन इन्द्रियों में कोई दोष न रहे- यह हुआ ‘यतात्मानः’। परन्तु ऐसा कैसे होगा? तो बोलते हैं कि ‘छिन्नद्वैधाः’। द्विधा, द्वि-विधा, दुविधा। कभी-कभी लोग दाहिने जाये कि बायें जायें- इसका निश्चय करने में भी देर करते हैं। एक [[पिता]] अपने दो बच्चों को भेद बताते हुए कह रहे थे कि व्यापार-सम्बन्धी निर्णय लेने में एक को जहाँ सात [[दिन]] लगते हैं वहाँ दूसरा वही निर्णय दो मिनट में कर लेता है। |
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15:29, 21 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 11
सबका आत्मा अपना आत्मा है और अपना आत्मा सबका आत्मा है। अपना अहित करोगे तो सबका अहित अवश्यम्भावी है। ‘सर्वभूतहिते रताः’ का अर्थ है स्वसहित संसार के सभी प्राणियों के हित में तत्पर रहो तब परमसुख शान्ति की प्राप्ति होगी। यदि कहो कि सबके हित में कैसे लगें तो उसका उपाय बताया- यतत्मानः। अपनी इन्द्रियों, अपने मन को नियन्त्रण में, काबू में रखो। इन्द्रियों, मन को काबू में रखने का मतलब उनको मारना नहीं। यदि इनको मारना ही इष्ट होता तो ये आपको दिये ही न जाते। इन्द्रिय और मन मारने के लिए नहीं, काम लेने के लिए हैं। इनसे काम तभी ठीक लिया जाता है, जब ये क़ाबू में रहें, नियन्त्रण में रहें, जैसा कि पहले भी कहा ‘यतात्मानः’ का अर्थ है कि जब हम चाहें न बोलें तो वाणी न निकले। इस प्रकार के नियन्त्रण के लिए व्यवस्था की, मर्यादा की, प्रबन्ध की आवश्यकता है। यह नहीं कि जीभ बोलने लगी तो घड़ी आगे बढ़ गयी। घड़ी ने समय का उल्लंघन कर दिया और जीभ बोलती रह गयी। जैसे घड़ी की सुई व्यवस्थित रूप से चलती है वैसे ही जीभ भी व्यवस्थित रूप से हिले, पाँव भी व्यवस्थित रूप से चलें और हाथ भी व्यवस्थित रूप से काम करें। जब हम काम करना चाहें तभी काम हो और जब बन्द करना चाहें तभी बन्द हो। इस प्रकार मत दौड़ो कि जब रुकने का समय आवे तो रुक ही न सको। तुम्हारी मोटर इतनी तेज नहीं चलनी चाहिए कि क़ाबू से बाहर हो जाये। उसे जहाँ रोकना है वहाँ वह रुक जानी चाहिए। तो ‘यतात्मानः’ का तात्पर्य है कि हमारा मन, हमारी इन्द्रियाँ हमारे अधीन हों। जो बोलना उचित हो वही हम बोलें। जो करना उचित हो वही करें। जहाँ जाना चाहिए वहाँ जायें। किसी भी अनुचित दिशा की ओर हमारा मन, इन्द्रिय और बुद्धि न ले जायें, हम ‘यतात्मानः’ होने पर ही सबका भला कर सकते हैं और ‘सर्वभूतहिते रताः’ वही हो सकते हैं जो अपने को क़ाबू में, नियन्त्रित और मर्यादित रखते हैं। अच्छा जी कर्म में कोई दोष न रहे- यह तो हुआ ‘सर्वभूतहिते रताः’ और मन इन्द्रियों में कोई दोष न रहे- यह हुआ ‘यतात्मानः’। परन्तु ऐसा कैसे होगा? तो बोलते हैं कि ‘छिन्नद्वैधाः’। द्विधा, द्वि-विधा, दुविधा। कभी-कभी लोग दाहिने जाये कि बायें जायें- इसका निश्चय करने में भी देर करते हैं। एक पिता अपने दो बच्चों को भेद बताते हुए कह रहे थे कि व्यापार-सम्बन्धी निर्णय लेने में एक को जहाँ सात दिन लगते हैं वहाँ दूसरा वही निर्णय दो मिनट में कर लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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