गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 11
यह पहले ही दिन जो बात कह देता है, उसको समझकर निश्चय पर पहुँचने में दूसरे लड़के को सात दिन लगाने पड़ते हैं। दोनों लड़के एक ही माता-पिता के हैं, एक ही वातावरण में पले हैं, लेकिन उनके निश्चय में बड़ा अन्तर पड़ जाता है। जो निश्चय नहीं कर सकेगा कि दाहिने जाना है बायें, सामने जाना है कि पीछे उसको द्विधा या दुविधा बनी रहेगी, द्वैध बना रहेगा, संशय बना रहेगा। एक आदमी नदी में तैर रहा था। उसको यह तो मालूम था कि इसी नदी के किनारे हमारा घर है और घर पहुँचना है। पर तैरते-तैरते उसको यह ख्याल नहीं रहा कि उसका घर नदी के दाहिने है या बायें? अब वह थोड़ी देर बायीं ओर तैरे फिर दायीं ओर तैरने लगे। जब उसकी दुविधा दूर हुई तभी वह घर की दिशा की ओर तैरकर पार हुआ और घर पहुँचा। तो, सबकी भलाई करने के लिए अपने मन और इन्द्रियों पर काबू होने के साथ-साथ निश्ययात्मक ज्ञान होना जरूरी है- ‘छिन्नद्वैधाः।’ दुविधा या संशय तो बड़ा भारी पाप है संशयात्मा विनश्यति, नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः - ये गीता के ही वाक्य हैं। संशय एक प्रकार की निद्रा ही है। जिस धातु से ‘शयन’ शब्द बनता है, उसी धातु से सम् उपसर्ग जोड़कर संशय शब्द बना है। सम+शयनं=सम्यक शयनं और सम+शयः=संशयः।’ तो संशय माने शयन-निद्रा। जब मनुष्य इस प्रकार के संशय में अपना जीवन व्यतीत करता है कि यह कर्तव्य है या अकर्तव्य, यह भोक्तव्य है या अभोक्तव्य, तो उसका जीवन ठीक व्यतीत नहीं होता। अनिश्चयात्मक जीवन में मन और इन्द्रिय वश में नहीं रहते और उसके द्वारा लोकोपकार भी नहीं होता। तो, यह संशय कैसे मिटे? इसका उत्तर दिया कि क्षीणकल्मषाः लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम्। इसमें ‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं’ तो है फल और ‘क्षीणकल्मषा’ का अर्थ है जिसके मन में पाप वासना नहीं, जो ‘अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा’- कर्म से, मन से, वाणी से किसी का भी बुरा नहीं चाहता। तो तात्पर्य यह कि पहले अपने मन की पाप वासना नष्ट हो। फिर दुविधा अथवा संशय समाप्त हो, मन-इन्द्रियाँ वश में हों, सबकी भलाई के लिए काम किया जाये। तब ‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम्’- ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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