गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 11
अब जब आप जीवभाव को छोड़कर ब्रह्मभाव में शान्त हो गये, लीन हो गये और ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति हो गयी तब- कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्। काम और क्रोध का आना बुरा नहीं, इनके वश में हो जाना बुरा है। काम-क्रोध तो हमारे अन्तःकरण में बीज रूप से मौजूद हैं और अन्तःकरण हमारे शरीर के भीतर है। इतना सुरक्षित अन्तःकरण इसीलिए प्राप्त हुआ है कि हम किसी से बचना चाहते हैं और किसी को पाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में हमारे मन में कभी कामना या क्रोध न आये यह सम्भव नहीं। अतः काम, क्रोध आ जायें तो ऐसा नहीं समझ लेना कि आप नीच हो गये, हीन हो गये, गिर गये। बल्कि यह प्रयत्न करना चाहिए कि यदि काम-क्रोध आ जायें तो उन पर विजय प्राप्त करें। उनके अनुसार हम नहीं चलें, हमारे अनुसार वे चलें। हम काम को जान-बूझकर भगवान की ओर लगा दें, क्रोध को जान-बूझकर बुराई के निवारण की ओर लगा दें और इस प्रकार अपने हृदय को शुद्ध कर लें- कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्। कभी-कभी तो काम आने पर आप जान-बूझकर क्रोध बुला लीजिये, तो काम भाग जायेगा। यह काम-निवारण की युक्ति है। इसी प्रकार कभी क्रोध आये तो वह काम बुलाने पर भाग जायेगा। ये दोनों परस्पर ऐसे हैं कि एक के आने पर दूसरा चला जाता है। वृन्दावन में एक सज्जन हमारे पास बहुत ज्यादा बैठते थे। हम जानते थे कि अमुक व्यक्ति आ जाये तो ये चले जायेंगे। इसलिए उनके आने पर हमारे एक मित्र अमुक व्यक्ति को बुला लेते और वे उनको देखते ही चले जाते। अमुक व्यक्ति भी कैसे जायेंगे यह हमें मालूम था। वे हमारे हाथ में अख़बार देखते ही अथवा कमरे में रेडियो की आवाज सुनते ही उठकर चले जाते थे। उनको अख़बार, रेडियो दोनों पसन्द नहीं थे, बस उन्हें हाथ में देखा और भागे। असल में मनुष्य को मालूम होना चाहिए। तो कामक्रोधादि की दवा यह नहीं कि हम इनको छोड़ दें। इनका प्रयोग औषध के रूप में करना चाहिए। आप क्रोध पर काम का, काम पर क्रोध का और काम-क्रोध पर लोभ का प्रयोग करें। आप इस प्रकार सोचें कि यदि यह भोग हम करेंगे और इस जगह पर क्रोध करेंगे तो हमारी आमदनी में बाधा पड़ेगी। हमारा जो मुनाफ़ा है वह कम हो जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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