गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 2
यह जो श्रीकृष्ण का, ईश्वर का, व्यक्तित्व है यह क्या वैसे ही है? पन्चभूत उपादान है और जीव के पूर्व संस्कार हैं। माता-पिता निमित्त हैं - और एक जीव का व्यक्तित्व उदय होता है - एक मनुष्य प्रकट होता है। अब बताओ वह चिद्वस्तु चेतन, जिसमें साक्षी होने से उपादानता नहीं है, अकर्ता होने से जिसमें संस्कार नहीं है, अदृश्य होने से जिसमें कोई क्रिया का प्रयोग नहीं है, जो सच्चिदानन्दघन चेतन है, वह श्रीकृष्ण व्यक्ति के रूप में कैसे आया? मनुष्य को व्यक्ति के रूप में आने के लिए माता-पिता का बीज भी है, पन्चभूत भी है, उसके कर्मरूप निमित्त भी हैं। एक जीव मनुष्य के रूप में व्यक्त हुआ तो उसके पास तो सारी सामग्री थी। परन्तु ईश्वर को व्यक्ति बनाने में, एक मनुष्य के रूप में आने में क्या कारण है? पन्चभूत के उपादान से शरीर बना नहीं, पूर्वजन्म के संस्कार हैं नहीं, इसके वास्तविक माता-पिता कोई है नहीं। किसी ने उनको संकर बनाया नहीं। फिर श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व क्या है? उन्होंने कहा कि मैं तो अव्यक्त ही हूँ - व्यक्ति-भाव को कभी प्राप्त हुआ नहीं। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: ।[1] कभी कोई दर्शन-शास्त्र की बात भी सुना दें। कभी कथा भी सुना देंगे। पण्डितों में जब इसकी चर्चा होती है - उसका नमूना आपको सुना दें - आपको श्लोक के साथ सुना दें। जैसे आप व्यापार में पैसे के साथ खेलते हैं, वैसे हम लोग शब्दों के साथ खेलते हैं। भगवान ने कहा - जब मैं प्रत्यक्ष व्यक्ति के रूप में प्रकट हूँ - ये साँवर सलोना, ये पीताम्बरधारी, ये मन्दमन्द मुसकान, ये प्रेमभरी चितवन, मैं तुम्हारे सामने हूँ तो फिर निराकार का चिन्तन कौन करेगा? बोले - ‘अबुद्धयः’ - अव्यक्तं सन्तं माम् अबुद्धयः व्यक्तिमापन्नं मन्यते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 7.24
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