गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 10
उधार को संस्कृत में अध्याहार बोलते हैं। उधार की प्रसन्नता आपको कभी सुखी नहीं कर सकती। जो आत्मसुख का आस्वादन करता है‚ उसको बाह्य स्पर्श से वैराग्य होता है और बाह्य स्पर्श में अनासक्त है, विरक्त है, उसको अपनी आत्मा की ब्रह्मता का बोध होता है। देखो एक बात इतनी सीधी है कि इसको विद्यार्थी भी, बच्चा भी समझ सकता है। वह यह कि हमें अपना आपा दीखता नहीं; बल्कि वह तो स्वयं देखता है, इतना सबको मालूम है। जब अपना आपा दीखता नहीं तो ये क्षण-क्षण भी नहीं दीख सकते, आयु भी नहीं दीख सकती, इसकी लम्बाई-चौड़ाई भी नहीं दीख सकती, इसका वजन भी नहीं दीख सकता। जब यह स्वयं में दीखता ही नहीं, तब इसकी लम्बाई-चौड़ाई और वजन कैसे दीखेगा? हम सौ-पचास की आयु वाले हैं, साढ़े तीन हाथ की लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, और हमारा वजन मन-दो-मन है-यह कल्पना अपनी आत्मा के साथ कैसे जुड़ेगी? जब देखने वाले के साथ देश-काल-वस्तु का परिच्छेद नहीं जुड़ता तो देखनेवाला अपरिच्छिन्न अद्वितीय ब्रह्म के सिवाय और कुछ हो ही नहीं सकता। जहाँ संसार की वस्तुओं में अनासक्ति हुई और अस्पर्शयोग में अवस्थित हो गये वहाँ ब्रह्मयोग-युक्तात्मा हो जायेंगे तथा अक्षय सुख की प्राप्ति होगी। एक सुख वह होता है जो क्षयिष्णु है- जिसका क्षय हो जाता है। और, एक सुख वह होता है जो अक्षय है जिसका कभी क्षय नहीं होता। हम अपने को नशे में, मोह में, भूलभूलैया में डालकर सुखी होना चाहते हैं- सुखं मोहनमात्मनः। निद्रालस्यप्रमादोत्थम्। मैंने सुना कि आजकल जवान लोग पान ज्यादा खाने लगे हैं तो मुझे जिज्ञासा हुई और मैंने अपने एक बहुत प्यारे बालक से पूछा कि तुम पहले तो इस आशंका से पान नहीं खाते थे कि दाँत खराब हो जायेंगे अब क्यों खाते हो? उसने बताया कि ‘आजकल पान की दुकान पर एक नशे की गोली मिलती है। उसी को लेने के लिए हम लोग पान की दुकान पर जाते हैं। पान से हमारा प्रेम नहीं।’ तो उस नशे की गोली में क्या है? निद्रा, आलस्य, प्रमाद। जो उस गोली को खाकर सुखी होंगे उन्हें जिस दिन वह गोली नहीं मिलेगी, उस दिन उनका क्या होगा? गोली खाने से जो सुख मिलेगा उससे तो उनका दिमाग़ ही खराब हो जायेगा। तो एक सुख वह होता है जो विषयों और इन्द्रियों के संयोग से- ‘विषयेन्द्रियसंयोगात्’ प्राप्त होता है। वह रजोगुणी सुख है। वह पहले तो अच्छा लगता है, बाद में विरस हो जाता है। तीसरा सुख सत्त्वगुणी होता है, जो अच्छी-अच्छी आदतों को डालने से मिलता है- अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति। परन्तु इन तीनों सुखों को सच्चा सुख नहीं मानते, न निद्रा, आलस्य, प्रमाद में सच्चा सुख है, न विषय इन्द्रिय के संयोग में सच्चा सुख है और न अभ्यासजन्य सुख सच्चा सुख है। आप कितना अभ्यास करेंगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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