गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 7
खाते हैं हम लोग और पचाता है वह। ‘भोक्तारं यज्ञतपसा’। यज्ञ का अर्थ होता है जो दूसरों को खिलाते हैं, सो वो यज्ञ है और जो स्वयं अपने भोग में संकोच करते हैं, थोडा खाते हैं। उसका नाम तम है। माने दूसरों को खूब खिलावे तो भगवान को खिलाते हैं, और स्वयं अपने भोजन में जो तपस् करते हैं, धर्म शास्त्र का नियम- ‘पूरदेशनेनार्घम।’ आधा पेट भोजन करना चाहिए। वायो: संचरणार्थ तु तुरीयं अवशेषयेत। हवा के लिए जगह मेट में जरूर छोड़नी चाहिए। ठसाठस नहीं भरना चाहिए। क्योंकि असल में भगवान अकेले नहीं पचाते हैं। यह हम लोगों के लिए उपदेश है। भगवान भी जब भोजन करते हैं तो एक ओर प्राण और एक ओर अपान। प्राण पाँच और अपान पाँच- इन दस वायुओं को अपने साथ बैठाकर तब भोजन करते हैं। उपनिषद् में तो ऐसे कहा है- केवलाद्यो भवति यः केवलादी। जो अकेला भोजन करता है। वह केवल पाप का भोजन करता है। खिलाकर खाना चाहिए। बल्कि दूसरे को खिलाकर भूखे भी रह जायँ तो इसमें और तपस्या बढ़ जाती है। लेकिन भगवान केवल यज्ञ और तपस्या ही नहीं खाते हैं, जो हम आहुति देते हैं और व्रत करते हैं- वही नहीं खाते है, वे तो भोक्ता हैं। उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः। इस देह में परमपुरुष परमात्मा रहते है। और वे देखते हैं वे अनुमति देते हैं वे शरण-पोषण करते हैं और वे भोग करते हैं। वो महा ऐश्वर्यशाली हैं- ऐसे परमात्मा हमारे हृदय में निवास करते हैं। आप ध्यान देंगे तो ईश्वर को ढूँढने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। अब और निकट बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज