गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 7
मैंने कहा - हम यहाँ स्नाना करेंगे। हमारे भोजन का प्रबन्ध करो। उसने सब कर दिया-फिर उसने पूछा कि आप बताइये आप कौन हैं? 2-3 घण्टे उसके साथ रहा और नहीं बताया कि कौन हूँ। जब चलते - चलाते उसको बताया कि मैं अमुक हूँ - तब तो वह मेरे साथ लिपट गया। बड़ छलिया हो तुम ! यह ईश्वर भी छलिया है। इसी को माया कहते हैं। माया को अपने से इतना ढके हुए रहता है कि - आरामं अस्य पश्यन्ति-न पश्यन्ति कश्चन। लेाग उसके बगीचे को देखते हैं, पर बगीचा बन करके वही लहरा रहा है, वही फूलों में सँवरा - सजा हुआ है। उसी में इतने स्वादु फल लग रहे हैं। वही छाया दे रहा है। यह बता ध्यान में नहीं आती कि यह उसीका है। कुछ तो हम लोगो की मान्यताएँ और कुछ लोगों ने हम को ईश्वर से बहुत दूर कर दिया। वह गया स्वर्ग में ईश्वर - और बैकुण्ठ में और गोलोक में और साकेत में। यहाँ ईश्वर नहीं है तो और कहाँ है? केवल पहचानने भर की देर है। एक बार मैं झूसी में रहा- इलाहबाद के पास। कोई 7-8 महीना रहा। सन 36 के लगभग की बात है- तो मुँह में जब ग्रास डालूँ तो ऐसा लगे कि भीतर नन्हा-सा कन्हैया बैठा हुआ है और मैं मुँह में ग्रास डालता हूँ तो छीन लेता है, झपट लेता है और खा लेता है। और हम को अँगूठा दिखाता है। थोड़ा-सा ही ध्यान देने पर आप देखेंगे कि खटमल के शरीर में भी, जूएँ के शरीर में भी और जिनको हम बहुत गन्दा समझते हैं, उनके शरीर में भी ‘शुनि चैवश्वपाके च’- कुत्ता और चाण्डाल के शरीर में भी वही बैठा हुआ है। और सब लोग जो अपना-अपना भोग लगाते है, उनके शरीर में बैठ-बैठ करके पचाने का काम करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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