गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 6
भगवान मच्छर के हृदय के में बैठ करके, ये मक्खी के हृदय में बैठ करके क्या खाते-पीते होंगे? ‘पचाम्यत्रं चतुर्विधम। चर्व्य, जैसे पूरी है; मालपुवा है- ये दाँत से काटकर खाते हैं। उसको चर्व्य कहते हैं। जैसे खीर को बिना चुगले, बिना दाँत से काट निगल जाते हैं, उसका नाम भोज्य है। और जब कोई चीज चूसकर फेंक देते हैं तब उसका नाम हो जाता है चोष्य। और चटनी को चाट लेते हैं, उसका नाम है लेह्य। चार प्रकार के जो अन्न है। चर्व्य, भोज्य, लोह, चोष्य– इन चारों प्रकारों को भगवान खाते हैं- और संसार के जितने जीव हैं- खाने-पीने वाले शरीर धारी ब्रह्मा से लेकर के कीट पर्यन्त, सबके भीतर बैठ करके खाता कौन है? वही। तो सबका भोजन भी तो वही करता होगा न! महाराष्ट्र में तो एक कथा है- भगवान ने चोखा चमार का खा लिया (विट्ठलनाथ ने)- सो वहाँ के ब्राह्मणों ने उनका वहिष्कार कर दिया। क्यों भगवान का बहिष्कार कर दिया? विट्ठनाथ, तुमने चमार के हाथ का भोग लगा लिया। अब हम तुम्हारा भोग नहीं पावेंगे। सो सबके शरीर में बैठकर रहने वाले, सबको छूने वाले, सबका खाने वाले, सबका पीने वाले, सबको अपने हृदय से लगाने वाले, सबके अपने आप ये प्रभु हैं। सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः।’ सबके हृदय में सम निविष्ट हैं। सम्य्क निविष्ट है माने कभी छोड़कर कहीं जाते नहीं। एक क्षण के लिए भी किसी का परित्याग नहीं कर सकते। संसार उसको कहते हैं जो कभी पकड़ा न जाय। जिसको कभी, किसी ने पकड़कर रोककर, अपने पास नहीं रक्खा-न जरासंध ने, न पृथु ने, रावण ने, न हिरण्यकशिपु ने- किसी के भी रोके यह किसी के पास नहीं रुका। न ब्रह्मा के पास रुका, न शिव के पास रुका, न विष्णु के पास रुका। उसका नाम संसार है। वह सरकता है। और जिसको कभी कोई छोड़ नहीं सकता, उसका नाम है आत्मा, उसका नाम है परमात्मा। कोई अपने की छोड़ करके कहाँ जा सकता है? वह परमात्मा कहाँ बैठा है? सबके हृदय में अलग-अलग - एक तृण से लेकर के प्रकृतिपर्यन्त और एक कीट से लेकरके हिरण्यगर्भ-पर्यन्त, जितने भी जीव है, सबमें वही परमेश्वर व्याप्त हो रहा है। ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो।’ करना क्या है? बड़ा मजा लेता है। कल आपको ईश्वर का स्वरूप सुनायेंगे। बहुत मजेदार है। हँसता है, खेलता है, नाचता है, गाता है, मिलता- जुलता है। व्याह करता है, बच्चे पैदा करता है। और दिन-रात हमसे मिला रहता है। बदकिस्मती यह है कि हम उसको पहचानते नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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