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गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
श्रीघनश्यामदास जी बिरला का
समापन भाषणदिनांक 19-11-1975 ई.
पूज्य श्री स्वामी जी महाराज! मैं अपने परिवार की ओर से और जो श्रोता लोग आये हैं, उनकी ओर से आपको अनेक-अनेक धन्यवाद देता हूँ। आप संन्यासी होकर भी लोक-कल्याण के लिए, लोक-संग्रह के लिए, सब भूतों के हित के लिए, कर्मयोग का जो अनुष्ठान कर रहे हैं, उससे संसार का मंगल हो रहा है। आजकल के समय, जबकि लोग बड़े उद्विग्न रहते हैं, एक अमृत की बूँद, प्रवचन के रूप में मिल जाती है तो उससे शान्ति होती है, अपने कर्तव्य का ज्ञान होता है। आपने अनेक गूढ़ बातें श्रोताओं को बतायी है। यहाँ भी, बम्बई में भी, जहाँ-जहाँ आप जाते हैं वहाँ-वहाँ प्रवचनों के द्वारा लोगों को लाभान्वित करते हैं। मैंने जो कुछ सुना है, उसका सार-सार अगर मैं कहूँ तो एक ही है। आपने श्रोताओं से यह कहा है कि अपना जो कर्तव्य है, उसको आप निष्काम भाव से करते जाओ। उसका फल क्या होगा, उसकी चिन्ता मत करो। अन्त में ईश्वर आपको सहायता देगा। यह बात बुद्धि से भी समझी जा सकती है कि फल आपके हाथ में नहीं है। गीताकार जब यह कहते हैं कि फल की आसक्ति को त्यागकर अपना कर्म करो तो उसका मतलब यह नहीं कि आप उसका फल क्या होगा- यह मत सोचो। किन्तु आप यह भी सोचो कि फल आपके हाथ में है ही नहीं। क्योंकि अन्त में कार्य का पूरा होना-न-होना बहुत सारी घटनाओं पर निर्भर होता है, जो आपके काबू में नहीं है, आपके नियन्त्रण में नहीं है। इसलिए समझदार व्यक्ति बुद्धि से भी सोच सकता है कि उसका काम केवल कर्म करना है और वह कर्म लोभ के साथ नहीं किया जाना चाहिए। कर्म तो निष्काम होकर ही करना चाहिए, क्योंकि कर्मयोग केवल कर्म का नाम नहीं, कर्मयोग उसी का नाम है जो सबकी सेवा के लिए, सर्वभूतों के हित के लिए, कामनाओं को छोडकर शुद्ध बुद्धि से किया जाता है। इसी कर्मयोग को स्वामी जी महाराज ने, अच्छी तरह समझाया है। एक बात आप ध्यान में रखिये, जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन के सामने गीता कही तो किस स्थान पर कही? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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