गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 1
जो वेदवित् है वह सर्वविद है, जो सर्वविद है वह वेदविद है। अब देखो उपनिषद को जोड़ लो। एक ऐसी वस्तु है जिसको जान लेने पर सब जान लिया जाता है। ‘यस्मिन, दृष्टे, श्रुते, मते, विज्ञाते, सर्वम् दृष्टम्, श्रुतम्, मतम्, विज्ञातम् भवति।’ एक दुनिया में ऐसी चीज है कि उसको जान लो तो सब कुछ जान लिया जायगा। सबको अलग-अलग जानने की कोशिश करें? आओ उसी को जान लें। सब कुछ जान लिया जायगा। बोले भाई यहकौन है? सर्वविद - तो कृष्ण ने कहा - मुझको जानता है वह सर्वविद है। तुम क्या जानते हो? तुम अपना जानना बताओ। अहं वेदवित्। मैं वेदवित् हूँ - वेद को जानता हूँ। वेद को कौन जानता है? जो सम्पूर्ण प्रपन्च और प्रपन्चाधिष्ठान के रहस्य को जानता है, जो दुनिया को जानता है, दुनिया को रोशन करने वाले को जानता है, जो दुनिया के अधिष्ठान को जानता है, जो स्वप्रकाश अधिष्ठान में द्वैत के अभाव को जानता है, वह जानने वाला वेदवित् है। वह वेदवित् मैं हूँ। और मैं सर्ववित् हूँ। इसलिए ‘यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्’ - ‘स सर्वविद भजति मां सर्वभावेन भारत’ - अर्जुन को कृष्ण ने कहा - अरे अर्जुन! भारत, तुम बड़े प्रतिभाशाली हो, भरतवंश में पैदा हुए हो, आनुवंशिक योग्यता है तुम्हारे अन्दर, पीढ़ी दर पीढ़ी से आयी है और भारत देश के तुम हो लाडले सुपुत्र, भरतवंश के हो और ‘भा’ माने प्रतिभा में निरन्तर रत हो। देशिक योग्यता है, आनुवंशिक योग्यता है और तुम्हारी प्रातिभ योग्यता है। इस योग्यता से समपन्न हो। आओ आओ तुम जानो। क्या जानूँ? मुझे जानो। तुम कौन हो? मैं वेदवित् हूँ। इसलिए मैं सर्ववित् हूँ। सर्ववित् ही नहीं हूँ, अर्जुन! सुन लो। वेदान्तकृत् - सम्पूर्ण वेदों का जो परम तात्पर्य है अन्त - उसको मैं जानता हूँ। जहाँ वेद नहीं थे, उसको भी जानता हूँ और जहाँ वेद नहीं होते हैं, उसको भी जानता हूँ। वेदान्तकृत। मैं वह हूँ जिसमें सम्पूर्ण वेद-वेदान्त पूरे हो जाते हैं। इस तरह छाती ठांककर अपने मित्र के सामने - कभी कभी डींग भी तो हाँकी जाती है न! अब आओ कल इसके आगे का प्रसंग कहेंगे कुल 20 श्लोक हैं - 3-4 श्लोक रोज कहेंगे पूरा हो जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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