गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 1
अश्वत्थ को जब उसने जान लिया तो अश्वत्थ को जानने वाला हो गया। वह वेद का जानने वाला कैसे हो गया? जो जिसको जानता है, उसका जानने वाला होता है। पर यहाँ कृष्ण को तो अपनी प्रशंसा ही करनी है। श्रीकृष्ण स्वयं अपने मुख से अपनी प्रशंसा करते हैं। जैसे एक सच्चा मनुष्य है तो वह अपने को मनुष्य नहीं कहेगा तो क्या पशु कहेगा? जो परम सुन्दर, परम मधुर, साक्षात् परमात्मा का स्वरूप है, अगर वह अपने को परब्रह्म परमात्मा नहीं कहे, तो क्या मूर्ख कहे? कि कीड़ा कहे? कि मकोड़ा कहे? यथा नरत्वप्रवृत्ते नरस्य। श्रीकृष्ण जो अपने को जानते हैं, अनुभव करते हैं, वही तो बोलते हैं। छाती ठोंककर इनको कहना है अन्त में। क्या? वेदविदेव चाहं; अहमेव च वेदवित्। असल में मैं ही वेदवित् हूँ। अब देखो दोनों को मला लो। पहले - वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यो, वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्। पन्द्रहवाँ अध्याय का आदि है कि वह पुरुष है, वेदवित् मालूम पड़ता है, होगा कोई गोलोक में, बैकुण्ठ में - बोले वह नहीं वेद विदेव चाहं’ - मैं ही वेदवित् हूँ। पहले तो बताया कि मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ, फिर बताया अमृत की प्रतिष्ठा हूँ, फिर बताया धर्म की प्रतिष्ठा हूँ, फिर बताया सुख की प्रतिष्ठा हूँ और बोले कि मैं ही वेदवित् हूँ। वेदवित् कहने से भी श्रीकृष्ण को सन्तोष नहीं हुआ। हमलोग वृजवासी हैं, ऐसे ही बोल देते हैं। मित्र हैं, कभी गुल्ली-डण्डा भी खेल लिया, कभी कबड्डी भी खेल ली। यह क्रिकेट, हाँकी तो पता नहीं उस समय थे कि नहीं थे। उसमें एक बात और कहनी थी कि जो वेदवित् होता है वह सर्वविद हो जाता है। यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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