गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 5
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। जो सुकृतो मनुष्य होते हैं, वे भगवान का भजन करते हैं और भले वे भगवान का भजन किसी भी लक्ष्य से करें, पर भगवान के लिए करें! ‘जनाः सुकुतिनोऽर्जुन’ आर्त, दुःख मिटाने के लिए भगवान का भजन कीजिये। यहीं एक सेठ थे, उनका नाम तो हम भूल गये हैं- जब यहाँ बड़े-बड़े कविराज लोग हुआ करते थे- अस्पताल में निश्चय हो गया था कि उनका पाँव काट दिया जायगा। उनके पाँव में कोई दोष था। बड़े डरे और जब मन में भय आया तो उनको कोई सहारा नहीं दिखा और भगवान के चित्र को अपने हृदय में लगाया और आर्त हो करके उन्होंने प्रभु को पुकारा! नींद आगयी। नींद में स्वप्न आया कि तुम अच्छे हो गये। उठो। नींद टूटी। उन्होंने कहा- यह तो सपना है, इसमें क्या रखा है! फिर रोये, रोकर भगवान के चित्र को हृदय से चिपकाया और भगवान के सिवाय और कोई सहारा नहीं है, बिलकुल अनन्य। न कोई उपाय, न कोई को व्यक्ति अब तो हमारे दोनों पाँव कट जायँगे। निराश्रय होकर के, अकिंचन होकर के, अनन्यगति को करके उन्होंने भगवान को पुकारा। फिर स्वप्न आया। भगवान ने कहा-अरे, तु उठ तो भाई! अच्छा हो गया। दूसरी बार सपना आया, तीसरी बार सपना आया। उन्होंने सोचा, सचमूच देखें क्या बात है! पलंग पर से अपना पाँव नीचे किया तो सचमुच नीचे उतर गये। उतर कर वे बाथरूम में गये। अपने आप सब काम कर लिया। फिर लौटकर आये और देखा कि हम तो बिलकुल ठीक हैं। तो वे चुपके से अस्पताल में-से अपने घर चले गये। सबेरे जब ऑपरेशन के समय डॉक्टर लोग इकठ्ठे हुए तो वहाँ रोगी ही नहीं। खोज हुई तो उन्होंने अपने घर से बताया कि मैं तो लिकुल ठीक हूँ। तो डॉक्टर लोग उनके घर में ही गये कि कहीं पागल तो नहीं हो गया है। और जाकर जाँच की तो पाँव में कोई रोग नहीं। आर्त लोग यदि भगवान के प्रति अनन्यगतिक और अकिंचन (दूसरे कोई सहार नहीं है और दूसरा कोई अपने पास उपाय नहीं है)- होकर भजन करते हैं और भगवान उनकी आर्ति पूरी करते हैं। अर्थार्थी को अर्थ मिलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज