गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 10
भाई, आप अपने को एक शरीर के रूप में मत मानिये। आपका शरीर भी पंचभूत ही है और बोली भी आपकी सब जगह पहुँचती है। अच्छा, जरा बताईये आपके शरीर का आकाश अलग है क्या? आप दुनिया के आकाश में से अपने भीतर के आकाश को अलग कर सकते हैं? इस संसार में जो हवा चलती है उससे क्या आप अपनी साँस को अलग कर सकते हैं? फिर आप अपने को देह-बुद्ध क्यों करते हैं? भगवान शंकराचार्य का कहना है कि देह में जो मैं- पना है, यह अविचार-रमणीय है। जब तक हम वेदान्त-विचार नहीं करते, तत्त्व-विचार नहीं करते तभी तक ‘मैं’ देहबद्ध मालूम पड़ता है, अन्यथा वह सम्पूर्ण विश्वात्मा है। विश्वात्मा से परे ‘मैं’ समग्र सूक्ष्म सृष्टि है। उससे भी परे कारण-सृष्टि है और उससे भी परे परब्रह्म तत्त्व जिसमें सब नहीं। सब माने तो समष्टि होता है। बहुतों के जोड़ का नाम सब होता है। उपनिषद् का जो तत्त्व है वह बहुतों को जोड़ नहीं वह तो एकमेवाद्वितीय है। इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं- कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:। अर्थात तुम स्वयं को सम्पूर्ण विश्वात्मा के साथ, ईश्वर के साथ, परब्रह्म परमात्मा के साथ एक करके देखो और इस शरीर से जो कर्म हो रहा है, उसके होते हुए भी अपने को अकर्म समझो। यदि तुम इस शरीर से कर्म को छोड़कर हाथ-पाँव बाँधकर बैठोगे तो इसमें भी कर्म होगा। अतः योगी वह है, बुद्धिमान वह है जो सारे कर्म करते हुए भी उनसे मैं-मेरा का सम्बन्ध छोड़कर परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है। ऐसा होने पर न तो कर्म का सम्बन्ध जुड़ता है, न पाप-पुण्य लगता है और न सुख-दुःख मिलता है। वह सुख-दुःख, पाप-पुण्य, लोक-परलोक और स्वर्ग-नरक से मुक्त हो जाता है। उसके सामने न तो संसार रहता है न परिच्छिन्नता रहती है। वह सीधा अद्वितीय परमात्मा के रूप में विराजमान हो जाता है। एक बात ध्यान में रखने की है। संसार के जो अन्यान्य धर्म हैं; वे सब कहानी-क़िस्सों के आधार पर टिकते हैं। पुराण-प्रधान धर्म पौराणिक धर्म है। किन्तु हमारा जो यह धर्म है, आध्यात्मिक है और हमारी गीता दार्शनिक दृष्टिकोण से हमारे जीवन के रहस्यो, कर्मों और भोगों का प्रतिपादन करती है। गीता दृष्टि देती है और आप उसके अनुसार चलकर स्वयं परमात्मा से एक हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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