गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 2
यहाँ भी यह पद है-‘पश्य मे योगमैश्वरम्’। जरा देखो, यह ईश्वरीय योग देखो। ईश्वरीय योग की क्या विशेषता है? एक तो कह दिया-तुमको यह दुनिया दिखती है? अर्जुन-हां, दिखती है महाराज। कहाँ दिखती है? देख, मुझमें है-‘मत्स्थानि सर्वभूतानि’। मैं आकाश से बड़ा हूँ। मुझमें है दुनिया-बोले अच्छा महाराज, एक बात बताओ-जैसी मैं दुनिया देख रहा हूँ-वैसी आप भी देखते हैं? बोले-‘न च मत्स्थानि भूतानि’। बोले-कुछ नहीं, तुम्हारी दृष्टि से सारी सृष्टि मुझमें है और मेरी दृष्टि से सृष्टि मुझमें है ही नहीं। यह क्या आश्चर्य है? यह आश्चर्य है। यह आश्चर्य है कि आकाश में नीलिमा है। हाँ जी, हमारी आँख बताती है कि आकाश में नीलिमा है। अब कहीं आकाश भी आँख वाला है! और उससे पूछो कि क्यों आकाशजी-आप नीले हो? तो आकाश को अपने अन्दर नीलिमा बिलकुल नहीं दिख सकती। योग-दर्शन में यही विभाग किया हुआ है। ‘कृतार्थ के प्रति सृष्टि नहीं है; और साधारण के प्रति यह सृष्टि है।; तब ईश्वर के प्रति यह सृष्टि क्या है? है भी और नहीं भी है। है कहो तो जीव दृष्टि से है। ईश्वर-दृष्टि से नहीं है। ईश्वर-दृष्टि से नहीं कहो तो जीव-दृष्टि से है। इसलिए अनिर्वचनीय अर्थात् न हाँ बोल सकते, न ना बोल सकते। यह ईश्वरीय सृष्टि ‘मत्स्थानि सर्वभूतानि’ और न च मत्स्थानि भूतानि’। यह भगवान में है भी और नहीं भी है। एवमुक्तवा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः। ऐसा कहा भगवान महायोगेश्वरेश्वर ने। भगवान-श्रीहरि, भगवान महायोगेश्वार है। एक होते हैं योगीश्वर और एक होते हैं योगेश्वर-इन दोनों में फरक होता है। जैसे एक होती है मण्डली और उसमें एक होते हैं मंडलीश्वर, महात्माओं में होते हैं। असल में शब्द मण्डलीश्वार ही है। बाद में लोगों ने उसको मण्डलेश्वर बना दिया। दुनिया में बहुत-से योगी होते हैं। अष्टांग-योगी हैं, हठयोगी हैं, मन्त्रयोगी हैं, राजयोगी हैं, लययोगी हैं- उनका जो नियन्त्रण करे, योग की शिक्षा दे-योग में स्थिर करे, उसका नाम होता है योगीश्वर। लेकिन जो जिसको चाहे योग दे दे, योग ही जिसके हाथ में है, वह योगेश्वर है। अर्जुन से भगवान ने यह नहीं कहा कि तू आसन, प्राणायाम साध, तब तुझे दृष्टि प्राप्त होगी और तू मुझे देख सकेगा। उससे बिना योग कराये अर्जुन को योग का फल देने में समर्थ हैं श्रीकृष्ण। इसलिए वे योगेश्वर हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.9-10
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