गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 2
इसी से जब लेबोरेटरी में पंचभूतों की परीक्षा की गयी तब पाँच नहीं चार निकले। जल तत्त्व ही नहीं निकला, लेबोरेटरी में। वह तो, दो प्रकार का गैस मिला देते हैं उससे पानी की वर्षा हो जाती है। पानी तो बन जाता है पर हमारी जीभ पर जो स्वाद आता है, उस स्वाद का पता मशीन से चल सकता है कि नहीं? नहीं चल सकता। इसलिए रसना को भी पाँचवीं इन्द्रिय मानना चाहिए और उसमें ग्रहण किया हुआ जो विषय है-स्वाद-रस उसको भी एक पदार्थ मानना आवश्यक है और उस रस का आश्रय जल है। जब तक जीभ पर पानी नहीं होगा तब तक स्वाद कैसे मालूम पड़ेगा! प्रसंगवश यह बात आपको सुनायी। हमारी जो आँख है वह कितना देख सकती है। यह किसी भी वस्तु को पूरी नहीं देख सकती है। इसकी भी एक मर्यादा है। इसलिए दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है। ऐसी दिव्य दृष्टि जो पाँचों को देख सकती हो। अब आप दिव्य दृष्टि को फिर से समझिये। आँख केवल रूप को देख सकती है। लेकिन अर्जुन को जो दीख रहा है, वह केवल रूप नहीं दिख रहा है- उसको गन्ध भी दिख रही है, यहाँ तक कि मरे हुए, मरने वाले लोग भी दीख रहे हैं। जो आगे मरेंगे,
जो आगे मरेंगे उनको भी देखने की शक्ति अर्जुन की दृष्टि में आ जाती है। वहाँ भूत और भविष्य की सीमा नहीं रहती है। वहाँ पूर्व और पश्चिम की सीमा नहीं रहती है। वहाँ सूक्ष्म और स्थूल की सीमा नहीं रहती है। ऐसी दृष्टि जो इन आँखों से बहुत विलक्षण है और अद्वैत दृष्टि से निम्न कोटि की है। ऐसी दिव्य-दृष्टि भगवान अर्जुन को देते हैं। अर्जुन ब्रह्म को नहीं देख पाते अर्जुन तो विश्वविराट् को इस दृष्टि के द्वारा देखे हैं। ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्। मेरा ईश्वरयोग देखो-ऐश्वरयोग का अर्थ ऐसा अद्भुत है। नवें अध्याय में इसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तिमूर्तिना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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