गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 2
दिव्य चक्षु मध्यवर्ती नेत्र है। क्योंकि आत्मदृष्टि, ब्रह्मदृष्टि सर्वोत्तम दृष्टि है। और यह जो लौकिक आँख है जिससे हम संसार को देखते हैं, यह निम्न दृष्टि है। इसके बीच में एक अन्तर्दृष्टि होती है। वह अन्तर्दृष्टि कैसी होती है? न तो वह पंचभूत से बनी हुई है, पाँच भौतिक शरीर से बनी हुई नहीं। और न तो शुद्ध चेतन है। चिन्मात्र वस्तु और लोकवस्तु को देखने वाली जो दृष्टि है, उस दृष्टि के मध्य में एक दिव्य दृष्टि होती है। दिव्य दृष्टि का मतलब है कि इन इन्द्रियों से जो चीज नहीं दिखायी पड़ती है, वह उससे दीखती है। एक आचार्य ने तो कहा ‘एकाग्रं मन एव दिव्यं चक्षुः’। एकाग्र मन ही दिव्य दृष्टि है। जब मन में एकाग्रता आती है तब यह जो देह में परिच्छिन्न सीमित दृष्टि है-इस सीमा को पार कर जाती है और वह असीम पदार्थ को देखने में समर्थ हो जाती है। परन्तु भगवान के लिए तो यह सब खेल है। दिव्य का प्रयोग गीता में और भी है। इसी अध्याय में कई बार है। लेकिन भगवान कहते हैं कि मेरा जन्म, कर्म दिव्य है। इस पर आप लोगों की दृष्टि जरूर गयी होगी। जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। भगवान ने कहा कि मेरा जन्म दिव्य है और मेरा कर्म दिव्य है। जन्म, कर्म की दिव्यता का अर्थ क्या होता है? एक खेल है। दिव्य शब्द का एक अर्थ होता है-खेल। पहला ही अर्थ है खेल। खेल माने जिसमें पाप-पुण्य नहीं लगता। जब कर्म साधारण रूप से करते हैं तो उससे पाप-पुण्य की उत्पत्ति होती है। अपेक्षा बुद्धि से जो कर्म होता है कि इस कर्म का यह फल हो और वह हमको मिले वहाँ कर्म खेल नहीं होता। वहाँ तो कर्म वस्तुतः कर्म होता है और करने वाले को चिपक जाता है। जहाँ कर्ता हो, पूर्व संकल्प हो और जो आयाससाध्य हो, उसमें कुछ अपेक्षा हो और बाद में उसके फल की उत्पत्ति हो तो वह साधारण कर्म होता है। लेकिन जहाँ कर्ता भी न हो और कोई कामना भी न हो और उससे किसी फल की आकांक्षा भी न हो और कर्म कर रहे हैं तो, वह तो खेल खेल ही हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.9
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